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( ४ ) पर भी जैसे लोहा चम्न को खींचता है, हटाता नहीं। यदि कोई अधिक शक्ति वाला हटादे तो वह उसका हटामा कार्य कहा जा सकता है न कि खींचने वालेका अतः संयोग और वियोग ईश्वरको क्रियाके दोनों फन नहीं केवल एक ही माना जा सकता है। हमारा प्रश्न श्राप पर ज्योंका त्यों अभी
- स्वामीजी-वाह ! उदाहरण दिया मापने चुम्बकका | उदाहरण गतिका नहीं मांगा गया, उदाहरण इस बात का मांगा गया है कि कोई वस्तु ऐमी नहीं जो जन्य न हो और परिणमन शील हो । चुम्बक इसका उदाहरण परमात्मा की स्वाभाविक एक रस अखमा क्रियामें यह कदापि नहीं हो सकता कि किन्हीं परमाणुओं को किन्हीं से मिलावे और 'किन्हींको किन्हीं से क्योंकि ऐसा इच्छा पूर्वक पदार्थ बनानेसे ही होसकता है और ऐसा करने में भी उसको अपनी क्रिया में न्यूनाधिक्य करना होगा जिससे उसके अखण्ड एक रस शुद्ध आदि होने में बाधा पहुंचेगी। यदि यह कहो कि इसी दोष के निवारण करने के अर्थ तो स्वामी जी इसी पृष्टपर इन लाइनोंसे पूर्व यह लिख गये हैं कि “जो परमेश्वर भौतिक इन्द्रिय गोलक हस्त पादादि अबयबोंसे रहित है परन्तु उसकी अनन्त शक्ति वल पराक्रम है उनसे सब काम करता है जो जीवों और प्रकृति से कभी न हो सकते”। परन्तु विचारणीय विषय है कि जब स्वामी जी इससे पूर्वके पृष्ट २२४ पर सर्व शक्तिमान शब्दकी व्याख्यामें कहते हैं कि “क्या सर्व शक्तिमान वह कहाता है कि जो असम्भव बातको भी कर सके ! जो कोई असम्भव बात अर्थात् जैसा कारण के विना कार्य को कर सकता है तो बि. ना कारण दूसरे ईश्वरकी उत्पत्ति कर और स्वयं मृत्युको प्राप्त, जड़, दुःखी अन्यायकारी, अपवित्र, और कुकर्मी आदि हो सकता है वा नहीं। जो स्वाभाविक नियम अर्थात् जैसाअग्नि उष्णा, जल शीतल, और पृथिव्यादि सब जड़ोंको विपरीत गुणवाले ईश्वर भी नहीं कर सकता और ईश्वर के नियम सत्य और पूरे हैं इसलिये परिवर्तन नहीं कर सकता" अतः स्वतः सिद्ध है कि ईश्वर अपनी स्वाभाविक अखण्ड एक रस क्रियाको न्यूनाधिक्य करके परमाणुओं में परस्पर संयोग नहीं करा सकता। जो हो ईश्वर की क्रियामें सष्टि कर्तृत्त्व और प्रलय कर्तृत्व कदापि बन नहीं सकते। (प्रकाशक )