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(९०) क्रिया है" इस वातको हम मानते हैं पर यह क्रिया किसकी. है ईश्वरको या जीवकी ईश्वर की तो है नहीं क्योंकि वह एक रस होनेसे. अपनी क्रिया बदलता नहीं। तब वह अवश्य जीवकी है और वही आपके कथनानुसार ईश्वरसे प्रबल होने के कारण उसकी क्रियाको बदल देता है। जीव ईश्वर की प्रणा है यह तो पाप तब कहिये जब कि उसका अस्तित्त्व और सृष्टि कर्तृत्त्व सिद्ध हो जाय । जब कि ईश्वर और उसका सष्टि कर्तृत्त्वादि ही विवाद ग्रस्त है तब आप ऐसा कैसे कह सकते हैं ? यदि दुर्जन तोष न्यायसे भापकी प्रलय थोड़ी देरको मान भी ली जाय तो जब प्रलप हो चुकी ( प्रत्येक परमाणु कारण अवस्थामें होकर भिन्न भिन्न हो गये ) तो जब तक सृष्टिकालका समय न आवे तब तक ईश्वरको स्वाभाविक क्रिया क्या कार्य किया करती है? यह बतलाइये। ___स्वामीजी-सत्यके लिये दृष्टान्त होता है । जीवका स्वाभाविक ज्ञान नित्य है। सुषुप्तिमें ज्ञान कहां चला जाता है ? न सुषुप्तिमें क्रिया ही नष्ट होती है। सुषुप्तिमें क्रिया अन्दरूनी रहती है, जाग्रत्में बाहरी । परमाण प्रलयमें टूटते हैं। दीवार आदिक में परमाणु प्रत्यक्षमें टूटते रहते हैं स्वभाव रूपान्तर होना है। रूपान्तर क्रिया बिना नहीं हो सकता। सब पदार्थों में क्रिया ( तबदीली ) होती रहती है। बनना बिगड़ना दोनों स्वभाव नहीं हैं। जीवात्मा दिनमें सज्ञान रहता है रात्रिमें ज्ञान रहित, परन्तु यह स्वइससे ईश्वर अल्प शक्ति आदि सिद्ध होता है। यदि थोड़ी देरको ऐसा ही मानलो कि यह ईश्वरकी शक्तिसै वाहर है कि वह जगत्को सदैवके अर्थ कायम रख सके तो क्या जगत्के नाश होनेके द्वितीय क्षणमें ही उसे फिर न रचना प्रारम्भ कर देना चाहिये ? पर वह चार अरव वत्तीस करोड़ वर्ष तक क्यों चुपचाप बैठा रहता है ? ऐसा करने में क्या उसकी क्रिया उस मूर्ख राजाके समान नहीं है जो कि अपने जेलके गिरजाने पर उसको उतने काल तक वनाता नहीं जितने काल तक कि जेल प्रथम स्थिर रहा था । यदि यह कहो कि जैसे रात्रि और दिवश समकालीन प्रायः होते हैं वैसे ही सुष्टि और प्रलय सम कालीन हैं पर ऐसा मानना भी असङ्गत है क्योंकि रात्रि और दिवशका कारण सूर्यका किसी क्षेत्रमें उदयास्त है अतः जब ईश्वर सदैव सर्वत्र एक रस अखण्ड व्यापक है तब प्रलयादि कैसे ! इत्या| दि अनेक दूषणोंसे दूषित यह पक्ष सर्वथा अमान्य है ॥ ( प्रकाशक )