Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 104
________________ - - ( १०२) __ स्वामी जी-जगत् उसको कहते हैं जो चले । सृष्टि उसे कहते हैं जो सृजी गयी है । चलना और बनना क्रिपासे होता है। क्रिया विना कर्ताके होती नहीं इस लिये सष्टिका कर्ता स्वयं सिद्ध है। कर्ता दो प्रकार के होते हैं यस्वरूप हैं विना किसीके ज्ञानमें आयें रह नहीं सक्त और वह केवल जीव ही हैं जो कि उनको जान सकते हैं। यदि जीवोंसे भिन्न कोई अन्य ऐसा अनादिसे ही व्यक्ति अपेक्षा सर्वज्ञ विशिष्टात्मा मानिये जो कि सब का ज्ञायक हो तो ऐसा विशिष्टात्मा किसी भी युक्ति युक्त प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता अतः यह जीव ही सर्वज्ञत्व गुणा युक्त है ऐसा सिद्ध हुआ। यह प्रत्यक्ष देखने में आता है कि जितनी जितनी बीतरागता बढ़ती जाती है उतनी उतनी जानकी शक्ति भी, और इसी कारण प्रत्येक ही मतमें सं. सारके विरक्त पुरुष ही भविष्यवक्ता और विशेष ज्ञानी माने गये हैं। जब ज्ञोनकी वृद्धि वीतरागताके साथ ही होती है तो यह स्वतः सिद्ध है कि जो सर्वथा बीतराग है वही सर्वथा पूर्ण ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ है। इस कारण यह हेतु जैनियोंके परमात्माओंको सर्वथा सर्वज्ञ सिद्ध कर रहा है जो कि परमात्माका मुख्य गुण है ॥ स्वामी जी का यह कथन ठीक नहीं कि जिसके पास कुछ न हो उस को वीतराग कहते हैं क्योंकि यदि वीतरागका यही लक्षण माना जावे तो जिनके पास अपने पूर्व जन्मार्जित पापोंसे कुछ नहीं ऐसे भूखों मरनेवाले महा कङ्गले भी वीतराग सिद्ध होंगे। वीतरागका अर्थ है बैराग्य या राग द्वेषका अभाव और यह जीवको हितकर है तभी तो आपके गुरु जी महाराजने अपने सत्यार्थ प्रकाशके पांचवें समुल्लासमें सन्यासियोंका विशेष धर्म मनुस्मृतिके छठे अध्यायके आधार पर वर्णन करते हुए “इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेष क्षयेणच । अहिंसयाच भूतानाममृतत्वाय कल्पते ॥ इ. न्द्रियोंको अधर्माचरणसे रोक रागद्वेषको छोड़ना वतलाया है और सप्तम समुल्लासमें स्तुति और प्रार्थनाके प्रकरणमें उपासना योगका दूसरा अङ्ग व. र्णन करते हुए धारण करनेका उपदेश दिया है। यदि वीतरागता कुछ पास न होनेसे ही हो सकती है तो मरमुक्खे परम सन्यासी और ईश्वरोपासना करने वाले हैं ऐसा मानना होगा। अतः वीतरागका अर्थ जैसा कि स्वामी जी करते हैं फकीर फुकरे अर्थात कुछ पास न रखने वाले महा क. ङ्गले नहीं वरन् किसी भी पदार्थमें रागद्वेष न रखने वाले ( महान् विरक्त)

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