Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 113
________________ - - ( १११ ) मूर्ख नहीं कि इस जरासी बातसे अपने उस प्रभावको जो किवादि मनकेसरीजीके युक्तियोंसे उसपर पड़ा था बदल दे बाबू माहबके इस प्राग्रहको स्वीकार कर लिया और बादि गजके मरीजी जो खामीजीकी युक्तियोंका खराखन करनेके अर्थ खड़े हुए थे वैठ गये। - यद्यपि वादि गजकेसरीजी (अपने हिस्सेके पांच मिनिट बाब मिटुनलाल जी वकील के लेलेनेके कारण) स्वामीजी के इन अन्तिम प्राक्षेपों और प्रश्नों का उत्तर न दे सके परन्तु सर्वसाधारणके हितार्थ उन शाहूपोंका समाधान और प्रश्नोंका उत्तर अब प्रकाशित किया जाता है। स्वामीजी जो यह कहते हैं कि 'इच्छा कर्मके निमित्त से उत्पन होती है इस लिये इधर उधर जाती हैं' सो बिल्कुल असम्बन्ध है । झाला जी कि आपने इसे क्यों कहा और इच्छासे आपको किसकी इच्छा अभीष्ट. है? यदि जोधकी तो उसका यहां क्या सम्बन्ध है ? इत्यादि । अग्निमें इच्छा विषम बतलाना अत्यन्त हास्यास्पद है क्योंकि इच्छा चैतन्यमें होती है न कि जहमें । आपके.न्याय दर्शनने अपने अध्याय १ प्रान्हिक १ सूत्र १० “इच्छा देषप्रयत्नसुख दुःखजानान्यात्मनोलिङ्गमिति,, और वैशेषिक दर्शन अध्याय ३ माहिक सूत्र में "प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तर्विकाराःसुख दुःखेच्छा षप्रयत्नाश्चात्मनोलिङ्गानि,, में इच्छाको प्रात्माका लिङ्ग ( जिसको कि आपके गुरूजी महाराज अपने सत्यार्थप्रकाशमें गण कहते हैं) माना है। वैशेषिक दर्शन अपने अध्याय २ प्राहिक १ सूत्र ३ में अग्निका लिक "तेजो रूपस्पर्शवत्" रूप और स्पर्श कहता है न कि इच्छा। मालूम नहीं कि अग्नि मैं विषम इच्छा कहते हुए स्वामीजी किस अवस्था में थे । स्वामी जी जो अग्नि और ईश्वर के धर्मों को एक होने और गति देनेसे एकमा मानते हैं सो भी ठीक नहीं क्योंकि अग्नि भिन्न भिन्न परमाणुवाला खण्ड द्रव्य और सबको गति न देने वाला है और ईश्वर आपके मन्तव्यानमार एक अखण्ड द्रव्य और सबको मति देने वाला है प्रतः बैधर्म्य होनेसे वैषम्यता स्वतः सिद्ध है। अग्नि के परमाणु बहुत होने पर भी वह ईश्वर के समान एक (अखण्ड) द्रव्य है ऐसा कैसे माना जा सकता है। प्रथम श्राप कहते थे कि वह वैधयं नहीं व बैषम्य नहीं, और अब आप कहते हैं कि 'वैधयंका विषय एक है प्रत वैषम्य नहीं. इन दोनों बातों में कौनसी बात ठीक है। यदि वैधयंकाःवि. षय किसी मुख्य धर्ममें ही हुआ तो फिर स्वामीजीके दृष्टान्तसे दान्ति केसे

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