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( १०६ ). नने के समान शडित व्यभिचारी हेत्वाभास है क्रिया चेतन और अचेतन दोनों ही पदा होती ही और अनेक कार्य इस जगत् में चेतन कर्ता के किये हुए होने और भने अचेलनके भी। प्रथा जो बने चेतन कर्ता के बोनेसे होते हैं और घास फम विना शेतन कर्ता हो। हमारा प्रश्न अभी आप पर वैसाही खड़ाहै ॥ ... स्वामीजी-पण्डितजीने सृष्टिकर्ता मानलिया । घास फस आदि सूर्यके पाकर्षण तथा पानीके हेतुसे होते हैं। यह मैं पहिले ही कहचुका हूं। विना कर्ताको सृष्टिका एक उदाहरण दीजिये। घड़ी विना चलाये नहीं चलती। ईश्वरके सब काम नियमपूर्वक हैं। अन्दरको गतिमें दिशाभेद नहीं होता, प. रन्तु वह क्रिया चक्कर में होती है । ग्रहण आदिक नियमपूर्वक कर्ताका लक्ष्य करा रहे हैं। इसका मापने उत्तर नहीं दिया ॥
वादिगजकेसरीजी-हमने आपका सृष्टिकर्ता ईश्वर कदापि नहीं माना। जब कि 'घास फूस आदि सूर्यके आकर्षण तथा पानी के हेतुसे होते हैं। यह श्राप भी मानते हैं तो इन घास फस प्रादिके कर्ता और कारण यही सूर्यादि हैं..कि-कोई ईश्वर । पर्व ही कई वार कहा जा चुका है कि कार्यको कारण के साथ व्याप्ति है न कि आपके चैतन्य कर्ताके साथ । चैतन्य कर्ता के विना कार्यका उदाहरमा यो वनस्पति प्रादिका उत्पन्न होना भी है। जिस प्रकार घही किसी चेतन घहीसाजको चलायी हुई चलती है उसी प्रकार यह संसार भी किसी ईश्वरका चलाया चलता है इसमें हेतु क्या है ? यदि कार्यत्त्व ही तो वह पूर्व कथित हमारे मित्रके गर्भस्थ पञ्चम पुत्रके श्याम वर्ण होनेके उदा. हरण समान शख़ित व्यभिचारी है । आपके ईश्वरके सब काम नियमपूर्वक होते हैं, आपकी इस कल्पनाका खण्डन पूर्व ही कई वार किया जा चुका है
और अब फिर भी किया जाता है कि संसार के सब काम नियमपूर्वक नहीं क्योंकि कहीं वर्षा कितने ही दिन होती है और कहीं कितने ही दिन और कभी विशेष और कभी न्यून और कभी आवश्यकता पर विल्कुल नहीं आदि । जब कि भिन्न भिन्न कारण अवस्था को प्राप्त परमाणु प्रलय कालमें एकही स्थान पर नहीं वरन् आपके ईश्वर में समस्त व्याप्त हैं तो उनमें परस्पर दिशा भेद अवश्य है चाहे आप उसमें क्रिया भले ही चक्करसे माने । ग्रहमा प्रादिके नियम पूर्वक होने के कारण सूर्य्य आदिकको नियम पूर्वक गति आदि हैं न कि आपका माना ईश्वर । यदि ईश्वरको ही कारण मानिये तो अन्वय व्यतिरेक सम्बन्धके अभावमें उसकी व्याप्ति नहीं बनती और न उसमें सृष्टि और प्रलयके दो विरोधी गुण ही सम्भावित होते हैं।