Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 106
________________ . ( १०४ ) -- स्तुमें जो वनावट है वह नियम पूर्वक कर्ताका लक्ष्य करा रही है * ग्रहण प्रादिक नियम पूर्वक होता है । क्रियाका कर्ता विना चेतन के हो नहीं सकता इस लिये सिद्ध है कि सृष्टिका कर्ता चेतन ईश्वर है । वादि गजकेसरी जी- - इन प्रथम ही कह चुके हैं कि गुणोंके समुदाय को द्रव्य कहते हैं और प्रत्येक गुण क्षण प्रतिक्षण अवस्था से अवस्थान्तर हुआ करता है । षट् द्रव्य ( जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ) का समुदाय ही जगत् है । जब कि प्रत्येक ही द्रव्य प्रतिक्षण अवस्था से अवस्थान्तर होता है तो उसका समूह रूप जगत् भी संदेश चला ( रूप बदला ) करता है । जब कि जगतकी समस्त वस्तुओं में प्रतिशय अवस्था मे संवत्यान्तर होने में पूर्व क्रमवर्ती पर्यायका नाश और उत्तर क्रमवर्ती पर्याय उत्पाद होता है तो समस्त वस्तुओं के समूह रूप जगत्को उसके समस्त वस्तुकों में नवीन पर्यायोंका प्रतिक्षण सृजन ( उत्पाद ) होने की अपेक्षा से इसको सृष्टि भी कह सकते हैं । हम मानते हैं कि द्रव्योंके रूपान्तर होने और उनकी नवीन पर्यायों के उत्पाद में क्रिया और परिणाम या केवल परिणाम होता है । । पर यह नवीन पर्यायोंके उत्पादकी क्रिया और परिणाम या केबल परिणाम शुद्ध जीव शुद्ध पुद्गल ( परमाणु ) धर्म अधर्म, आकाश और काल में तो स्व स्वरूपानुसार स्वाभाविक काल द्रव्य के उदासीन कारण पनेसे होता है और वन्धावस्थाको प्राप्त अशुद्ध जीव और अशुद्ध पुद्गल ( स्कन्ध ) में वैभाविक रीति से सन्य वाह्य निमित्तानुसार और काल द्रव्यके उदासीन कारणपनेसे । अतः प्रत्येक शुद्ध द्रव्य स्वयं निन क्रिया और परिणाम या केवल परिणामका कर्ता है और * पाठकोंको स्मरण होगा कि प्रथम ही स्वामी जी उपनिषद् वाक्य "स्वाभाविकज्ञानवल किया च" का हवाला देकर ईश्वरको स्वाभाविक कर्त्ता सिद्ध करते थे परन्तु अब आप दो प्रकारके ( एक स्वाभाविक और दूसरा नियम पूर्वक ) कर्त्ता कहकर उसको नियमपूर्वक कर्त्ता सिद्ध करते हैं सो ठीक ही है कि समझ जानेपर बुद्धिमानोंको हठ करना कदापि योग्य नहीं । ( प्रकाशक ) जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें तो क्रिया और परिणाम दोनों ही हैं और शेवकी चार धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योंमें केवल परिणाम ही । ( प्रकाशक )

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