Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 107
________________ ( १०५ ) द्रव्यों जीवके जितने अंश कर्म से आच्छादित हैं उतने अंशों की क्रिया और परिणाम या केवल परिणामका कर्ता कर्म और जितने अंश कर्मों से प्राच्छादित नहीं उतने अंशोंकी क्रिया और परिणामका कर्ता जीव है और पुद्गल के स्कन्धमें वही पुद्गल परमाणु वैभाविक रीति से क्रिया और परिणमन करते हैं । अतः किसी भी द्रव्य के क्रिया और परिणाम या केवल परिणाम में (चाहे वह क्रिया और परिणाम या केवल परिणाम स्वाभाविक हो या वैभाविक ) -आपके माने हुए सृष्टिकर्ता ईश्वर के निमित्त ( सहायता ) की कोई आवश्यकता नहीं है और न ऐना निमित्त कारण ईश्वर कोई है ही । यदि थोड़ी देरको आपके ही कथनानुसार आपका ईश्वर सृष्टिकर्ता मान लिया जाय तो वह आपके बतलाए हुए दो प्रकार के (एक स्वाभाविक और दूसरे नियमपूर्वक ) कर्ताओं में से सृष्टिकर्तृत्त्व के विरोधी गुणों के कारण न तो स्वाभाविक ही कर्ता सिद्ध होता है और जगत् में हजारों अनियम पूर्वक कार्य होने से न नियम पूर्वक कर्त्ता हो । संयोग दो प्रकार के होते हैं एक तो एकत्व बुद्धिजनरु बन्धसंयोग यथा वृक्षके एक पत्तेमें परमाणुओं का और दूसरा पृथक बुद्धिजनक प्रबन्ध संयोग यथा दण्डी और दण्डका । पर इन दोनों प्रकारके संयोगों में आपके ईश्वरकी कोई भी आवश्यकता नहीं। हर एक फन पत्ता किमी नियम पूर्वक कर्ताका वनाया हुआ है * कार्य होने से घटपटादिवत, इसकी सिद्धिमें यदि कार्यत्त्व ही हेतु मानाजाय तो यह पूर्व कथित किसी मनुष्य के चार श्यामवर्ण पुत्रों को देखकर उसके पांचवें गर्भस्थ पुत्र को भी श्यामवर्ण मा. * हरएक फूल पत्ता किसी नियम पूर्वक कर्त्ताका बनाया या पैदा किया हुआ है ऐसा नियम नहीं क्योंकि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती महाराज अपने सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में पृष्ठ २२१ पर यह लिखते हैं कि "कहीं कहीं जड़ के निमित्तसे जड़ भी वन और बिगड़ भी जाता है जैसे परमेश्वरके रचित वीज पृथिवीमें गिरने और जल पानेसे वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड़के संयोग से विगड़ भी जाते हैं" । रही परमेश्वर के रचित वीज और इसके आगेकी लाइन 'परन्तु इनका नियमपूर्वक वनना वा विगड़ना परमेश्वर और जीवके आधीन है' की वात सो साध्य है क्योंकि जब ऐसे रचयिता परमात्माकी सत्ता ही लक्षण और प्रमाणोंसे श्रसिद्ध है और विना चेतन कत्तोके हीं अनेक नियम पूर्वक कार्य होना प्रत्यक्ष है तो वैसा कैसे माना का सकता है ? ( प्रकाशक ) १४

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