Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 94
________________ (२) मलय होती नहीं वरन यों ही जीव के कम्मों के व्यवधान से मालूम होती है। हमारे भाक्षेपोंका उत्तर तो श्राप देते ही नहीं। ___स्वामीजी-जीवमें कर्म आदिकी वजहसे अशुद्वि भाजाती है। अन्यथा १-जोखमें अशुद्धि कैसे आई? २-क्रियामें फल कैसे पाये? .. -३-परिणाम अनादि कैसे? अग्निमें गर्मी व पानी में सर्दी स्वाभाविक है । कार्य अनित्य होता है, क्रिया | अनित्य नहीं । घडीका चलना कर्ता प्रदत्त स्वभाव है । परिणामन आप सबका बतलाते हैं, परन्तु परिणमम तीसरा विकार है। परिणमनशील पदार्थोके जायते और बर्द्धते दो कारण होते हैं। जब परिणमन शील मानेंगे तो ना. यते और बर्द्धते भी मानना पड़ेगा। उत्पत्ति शून्यमें परिणमन नहीं । क्रिया की शक्ति नहीं बदलती, कार्य्य वदलता है। प्राप एक उदाहरण दो जिस में परिणमन हुआ हो और उस पदार्थका सत्पन्न होना सिद्ध नहीं हो। - वादि गजकेसरी जी-जीवमें अशुद्धताका कारण उसके चारित्र गुणमें कर्म मलके अनादि सम्बन्ध रागद्वेष रूप विभाव है। जब कोई क्रिया की जाती है तो उसका कुछ न कुछ परिणाम अवश्य होता है और उसी परिणाम का नाम फल है। परिणमन जब अनादि है तब उसका परिणाम भी अनादि ही है । जिस प्रकार घड़ी किसी घड़ीसाजकी चलायी हुई चलती है उसी प्रकार यह सारा संसार ईश्वर प्रदत्त क्रियाके वलसे चल रहा है इसमें पा हेतु है ? यदि इसमें घट पटादिका कर्ता कुलाल कुविन्दादि चैतन्य पुरुषों को देखकर जिनको बनते नहीं देखा ऐसे सूर्य चन्द्रादिका कर्ता कोई चैतन्य ई. श्वर कल्पना किया जाय तो यह कल्पना पूर्व ही कधित धार श्यामवर्ण पुत्रों के पिता पांचवे गर्भस्थ पुत्रको भी श्यामवर्ण सिद्ध करनेके समान शङ्कित व्यभिचारी दोषसे दूषित है। समस्त परिणमन शील पदार्थों में जायते और वर्द्धते होनेका नियम नहीं। आपके प्रकृति के परमाणु परिणमन शील होने पर भी जायते और बढ़ते दोषसे रहित हैं। यदि क्रिया एकसी ही है और कोई प्रबल प्रतिबन्धक न आवे तो उससे ( जैसा कि पूर्व ही सिद्ध किया जा चका है) कार्यका रूप बदल नहीं सकता । शोक कि आप हमारे भाक्षेपों का समाधान और प्रश्नका उत्तर न देकर विषयसे विषयान्तर होते फिरते हैं। स्वामी जी-क्रियाका फल संयोग वियोग दोनों हैं । संयोग मष्टि और

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