Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 98
________________ वादि गजकेसरी जी-जब कि श्रापका ईश्वर सर्व व्यापक, एक रस और अखण्ड है और उसके प्रत्येक प्रदेशों में एकसी स्वाभाविक क्रिया होती है तब पूर्व कथनानुमार कोई परमाणु अपने स्थानसे हिल नहीं सकता। यदि एक ओरसे की क्रिया होना मानों तो यह स्वभाव, एम रस और अखण्ड प्रादि ईश्वर के गुणोंसे विरुद्ध है और आपके पक्षका समर्थन नहीं करता क्योंकि ऐसा होनेसे सब परमाणु एक दिशा विशेष में ही दौड़ते चले जावेंगे और उनका संयोग न हो सकेगा । यदि एक दिशासे दौड़ाना और दूरी दिशा से परमाणु का रोकना मानों तो ईश्वर एक रस और अखगह (अपने समस्त प्रदेशों में एक सी क्रिया न होने के कारण) नहीं रहता । जो आप यह कहते हैं कि अन्दरके पदार्थों में दिशा भेद नहीं सो अनुचित है क्योंकि जब भाप ईश्वरको मर्व व्यापक और सब पदार्थ उपके अन्दर मानते हैं तो दिशा भेद किसी भी पदार्थ में न होना चाहिये फिर आपके वैशेषिकने दिशाको द्रश्न क्यों माना ? + जब एक ओरसे हरकत नहीं दी जा सकती और वह सब ओरसे एकसी दी जाती है तो कोई वस्तु बन नहीं सकती। जो आप ईश्वर में रूप न मानकर परिणाम नहीं मानते सो भी ठीक नहीं पयोंकि यदि ईश्वरका रूप ( श्राकार ) न माना जावे तो वह खर विषाणवत अवस्तु ही | ठहरेगा। है "ऐसा लिखते हुए सत, रज, तमको गुण सिद्ध करते हैं और बैशेषिक - पने अध्याय १ श्राहिक १ सूत्र १६ में गुण का लक्षण द्रव्याश्रय्यमुणवान् संयोग विभागेष्वकारण मनपंक्ष इति गुणलक्षणम्' जो द्रव्यके प्राश्रय रहे . न्य गुणका धारण न करे संयोग और विभागमें कारण न हो और एक दू. सरे की अपेक्षा न करे करते हैं। मालूम नहीं कि स्वामीजी के ये तीनों गुण किस द्रव्यके आश्रय हैं और प्रकृति द्रव्य गुण और पर्यायमें क्या है? य. दि द्रव्य तो उसको बैशेषिकने द्रव्यों की संख्यामें न रखकर मुण क्यों कहा, यदि गुण या पर्याय ( अवस्था ) तो किस द्रव्यको ! इत्यादि निर्णय कुछ भी नहीं होता। . . ... (प्रकाशक ) ... + पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगारमा मन इलि द्रव्याणि । वै: शेषिक दर्शन अध्याय १ प्राहिक १ सूत्र ५। (अर्थात् ) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, प्रात्मा और मन ये नव द्रव्य है । (प्रकाशक)

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