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और वियोग दो विरुद्ध क्रियाएं नहीं वरन् किपाके फल हैं । क्रिया के दो फल होते हैं १ संयोग, २- वियोग । एक गेंद पूर्व को फेंकी गई, परन्तु दीवार से लगकर फिर लौट आई। इस ही प्रकार जीवोंके कम्मोंके व्यवधान से संयोग और वियोग अर्थात् सृष्टि और प्रलय होते हैं। संयोग और वियोग गुण हैं, परन्तु गुण ४ प्रकार के होते हैं - ( १ ) स्वाभाविक, (२) नैमित्तिक, (३) उत्पादक, ( ४ ) पाकज । कर्त्ता की क्रिया से उत्पन्न होने वाला गुण पाकज होता है + न "न तस्य कार्य्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्ति विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च ॥ है | आप जो यह कहते हैं कि परमात्माका स्वभाव क्रिया है न कि सृष्टि रचना सो भी भिश्या है क्योंकि आर्य समाज के प्रवर्तक आपके गुरु स्वामी दयानन्द जी सरस्वती महाराज अपने सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में सृष्टि की उत्पति स्थिति और प्रलयका विवेचन करते हुए पृष्ठ २२४ पर लिखते हैं कि ● जैसे नेत्रका स्वाभाविक गुण देखना है वैसे परमेश्वर का स्वाभाविक गुरु जगत्को उत्पत्ति करके सब जीवोंको असंख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है । " अब कहिये इस विषय में पाठक आपको प्रमाणिक माने या आपके श्रीगुरूजी महाराजको ? ( प्रकाशक )
+ स्वभाव में दो विरोधी गुण नहीं हो सकते इस दोष से अपने ईश्वर को बचानेके लिये चार प्रकारके गुण गिनाकर जो स्वामीजी महाराज “कर्त्ताकी क्रियासे उत्पन्न होने वाला गुण पाकज होता है" ऐसा कहकर दवे शब्दों में इस संसार के संयोग और वियोग ( सृष्टि और प्रलय ) को ईश्वर की स्वाभाविक क्रियाके पाकज़ गुण कहते हैं सो भी ठीक नहीं क्योंकि आप के श्रीगुरूजी महाराज अपने वेदान्त ध्वान्त निवारणम् पुस्तक के पृष्ट सोलह पर संयोग और वियोगको स्वाभाविक गुण सिद्ध करते हुए लिखते हैं कि “जैसे मिट्टी में मिलनेका गुण होनेसे घटादि पदार्थ बनते हैं वालुका से नहीं, सो मिट्टीमें मिलने और अलग होनेका गुण ही है, सो गुण सहज स्वभाव से है वैसे ईश्वरका सामर्थ्य जिससे यह जगत् वना है उसमें संयोग और वियोगात्मक गुण सहज ( स्वाभाविक ) ही है,, । हम समझते हैं कि पाठकगण आपकी अपेक्षा आपके गुरूजी को ही अधिक प्रामाणिक समझेंगे । ( प्रकाशक )
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