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(८४ ) कोई वस्तु उत्पन्न होती है न नष्ट । कारण से कार्य्यरूपमें धानेका नाम उ. त्पत्ति और कार्यका कारणमें लय होजानेका नाम नाश है। घास जड़ी बूटी आदि स्वयं उत्पन्न नहीं होती, परन्तु जिस प्रकार घड़ीके कमरमें चाबी देने से वाकी पुरज़े चल उठते हैं इसही प्रकार इस सृष्टि रूपी घड़ीके सूर्यरूपी फ. नरमें ईश्वरकी शक्तिप्रदत्त क्रियासे मेघ बनता है, वर्षा होती है, घास प्रादि उगती हैं। ईश्वर में दो गुण हैं । ईश्वर दयालु है और न्यायकारी भी है, अतः क्रियाके दो फल हैं । सृष्टि दो प्रकारको है एक न्यायकी सृष्टि, दूसरी दयाकी सृष्टि। दयाकी सृष्टि में सूर्य, अग्नि, वायु, जल आदि हैं, जो ईश्वर जीवों पर दया करके उनके कल्याणके लिये देता है और आंख, कान, धन मादि न्यायको सृष्टि है जो ईश्वर न्याय करके जिस जीवके जैसे कर्म हैं उस को उसही प्रकार घटा बढ़ाकर देता है। परमात्मामें वितरेक महीं, परमा. स्माके लिये यह नहीं कहा जासकता “कि अमुक देश में है अमुरुमें नहीं, अमुक कालमें था और अमुक में नहीं न यही कि अमुक पदार्थ के होने से परमात्मा होता है और उसके नष्ट होजाने पर नष्ट हो जाता है ।।
. बादि गज केसरी जी-यदि परमात्मा में क्रिया स्वाभाविक है तो उस क्रिया के सृष्टि कर्तृत्त्व और प्रलय कर्तृत्व दो विरोधी फल कदापि नहीं हो सकते । गेंदका दृष्टान्त विषम है क्योंकि गेंद का लौट भाना फेंकने वाले की क्रिया का फल नहीं बरन दीवाल में टक्कर लगने के हेतु से हुआ। जिस प्र. कार दृष्टान्त में गेंद का एक ओर फेंका जाना और उसका पुनः लौट गाना एक क्रिया के फल नहीं बरन दो निमित्त ( मनुष्य की क्रिया और दीवाल के टक्कर लगने से ) जन्य हैं उसी प्रकार परमात्मा की क्रिया का एकही फ ल ( या तो सृष्टि कर्तृव या प्रलय कर्तृत्व ) होसकता है। अतः उसकी कि. या में दोनों विरोधी गुण कदापि नहीं। परमाणुओं में गति नैमित्तिक है - र्थात उन्हें जैसे निमित्त मिलते हैं वैसी गति होती है और निमित्तों की विभिन्नता से संयोग वियोग न हो सकने की दोषापत्ति व्यर्थ है। परमाणु वस्तु होने से साकार है यदि मिट्टी में ईट की शक्ल न होती तो वह पाती कहां से क्योंकि प्रभाव से भाव कदापि नहीं हो सकता जैसे कि बालका में घट नहीं है तो वह उससे बन भी नहीं सकता। कार्य की कारणसे व्याप्ति है जो कि दो प्रकार का होता है एक चैतन्य और दूसरा जड़ । किसी किसी चैतन्य कर्ता में कार्य के पूर्व ही उसकी प्राकृति ज्ञान सम्भव है परन्तु सबमें