Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ ." ..... . (४८ ) सरस्वतीका यह मन्तव्य है कि दूसरेका खण्डन करनेके अर्थ मिथ्या बोलना उचित है तब उनके अनुयायी हमारे समाजी भाइयों ने वैसा किया तो इसमें अनोखापन ही क्या है! रविवार ७ जुलाई १८९२ ईखी। - आर्य समाज के “शास्त्रार्थ को सर्वदा तपार" विज्ञापन के अनुमार लिखितं शास्त्रार्थके नियम तय करने को श्रीमान् स्थाद्वाद्वारिधि वादिगज केसरी पंडित गोपालदास जी बरैय्पा कुंधर दिग्विजय सिंह जी, न्यायाचार्य पंडित माणिकचन्दजी, बाबू घोसूलाल जी अजमेरा मन्त्री श्री जैनकुमार सभा, पडित फल चन्द जी पांड्या मन्त्री जैन सभा अजमेर और चन्द्र सेनजी जैन वैद्य आदि सज्जन आर्यसमाज भवन में निश्चित समयसे आध घण्टे पूर्व ( डेढ़ बजे दिन को) पहुंच गये । अढ़ाई वजे के लग भग नियमादि तप करने की वात चीत प्रारम्भ हुई । आर्यममाजकी ओरसे वैरिष्टर बाबू गौरीशङ्कर जी और वकील वाव मिटुनलाल जी और जैन समाजको मोरसे कुंवर दिग्विजय सिंह जी वोलनेको प्रतिनिधि नियत हुई। • शास्त्रार्थका प्रथम नियम यह हुआ कि “यह शास्त्रार्थ आर्यसमाज अजमेर और श्री जैन तत्त्व प्रकाशिनी सभा इटाबह के मध्य में होगा। . दूमरा नियम स्थान और प्रबन्धके विषय में था। इस कारण कि आर्य समाजने अपने पर्व प्रकाशित विज्ञापनोंमें श्री जैन कुमार सभाके नियत स्थान और प्रबन्धसे अश्रद्धा प्रगट की थी इस कारण हम लोगोंने अबकी वार शास्त्रार्थका स्थान और प्रबन्ध आर्यसमाजका रखना ही प्रकाशित कर दिया था। अतः हम लोगों की ओरसे यह प्रस्ताव हुआ कि शास्त्रार्थ का स्थान आर्यसमाज भवन और प्रबन्ध आर्यममाजका ही रहैं। इसपर आर्य समाजकी ओरसे यह कहा गया कि प्रार्य भवन छोटा और उसमें स्कूल आदि होने से थोष्ठी पब्लिक प्राप्तकेगी अतः कोई विस्कृत स्थान नियत हो और. प्रब आधा आधा दोनों पक्षोंका रहै। जैन समाजकी ओर से प्रथममें स्वीकृति और दूसरे विषय में अस्वीकृति इस कारण प्रकाशित. कोगई कि प्र. वन्ध दो विरोधी पक्षों के बीच होनेसे यह वहुत सम्भव है कि कोई पक्ष दूसरेको दूषित करने या शास्त्रार्थको टालने के अर्थ उल्टा प्रबन्ध करके गह नाही हालै अतः प्रबन्ध अकेले मार्य समाजके ही जिम्मे रहै क्योंकि उसको

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128