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(५४) म्ध करके तारीख को शास्त्रार्थ प्रारम्भ करदे परन्तु इन्होंने शास्त्रार्थ टालनेके लिये यही जिद्द पकडली कि शास्त्रार्थ ८ तारीख को ही हो, ६ तारख हम मंजूर नहीं करेंगे, समाजने साढ़े आठ बजे रात तक बैठे रहकर इनको बहुत कुछ समझाया कि यदि ही तारीखको शास्त्रार्थ करना चाहते हो तो जो स्थान हमारे पास मौजूद है उसमें हुम्बड़ न होने देनेके कारण टिकट द्वारा प्रबन्ध हम कर सकते हैं, इन्होंने कहा कि हमको ऐसा प्रबन्ध कदापि मं. जर नहीं है जितने आदमी भायें आने दो, समाजने इसमें लड़ाई दंगेका भय समझ कर उन्हींसे कहा कि यदि ऐमा मंजूर नहीं है और आपको जल्दी है तो आप प्रबन्ध कीजिये और हमें शास्त्रार्थ के लिये जहां बुलाओगे बहां श्रा जावेंगे। परन्तु इसको भी उन्होंने मंजर नहीं किया समाजने बीचों बार बड़ी नम्रतासे तारीख को शास्त्रार्थ करने के लिये कहा परन्तु उन्होने एक भी नहीं मानी सो नहीं मानी और बहुत शोर गुल मचाते रहे जिमसे सब लोगों को निश्चय होगया कि इनकी मन्शा हुल्लड़ मचा शास्त्रार्थको टालने की है ( जैसा कि उस समय उपस्थित भाइयोंने देखा भी होगा ) उसी समय "राप | सेठ चादमजी साहब जैनी भानरेरी मैजिस्ट्रेट" भी पधारे और उन्होंने बहुत गुण गपाड़ा देखकर यह सलाह दी कि शास्त्रार्थ "शहरसे दूर हो और और टिकट द्वारा ही, नहीं तो हल्ले गुल्लेमें शास्त्रार्थ कभी भी नहीं होसकेगा और आपस में तनागा होने का अन्देशा है, इस पर बाबू मिट्ठमलालजी वकीलने खड़े होकर कहा कि हमें जो कुछ प्रबन्ध सेठ साहब करदें मंजूर है, परन्तु इनारे सरावगी भाई चिल्लाने लगे कि हम सेठ साहबको नहीं जानते जो कुछ हम कहते हैं वही होना चाहिये । इसपर सेठ साहब उठकर चले गये, फिर भी इसी बात ( नियमों) पर वादानुवाद होता रहा और सरावगी भाई बहुत ही सभ्यताका परिचय देते रहे, जब शोर गुल बहुत ही बढ़गया और समाजके विज्ञापनमें लिखे "सर्वदा” शब्दपर बहुत जोर देने लगे तो समाजने बिछौने वगैरहका चौकमें प्रबन्ध कर उसी वक्त शास्त्रार्थ करनेको कहा, परन्तु इसपर भी राजी न हुए ( होते कहांसे उन्हें तो सिर्फ हुल्लड़ मचा कर अपना पिण्ड छुडाना था.) उनको बहुत समझाया गया परन्तु उन्होंने एक न मानी। । जब चिल्लाने लगे कि जिसको सुनकर पुलिस भागई और पछने लगी