Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 73
________________ (११) थे ऐसी दशा में उन लोगों का रुखाई के साथ बात चीत करने से इन्कार कर देना निस्सन्देह प्रक्षेपणीय है। मालम नहीं कि कौन से बात चीत के वि. रुड नोटिस प्रकाशित हुये। . ::: .. ... । नहीं जानते कि सारे "हम लोग उसको शाखा में कोड़ने वाले नहीं। हैं,, बचन कैसे मिथ्या अभिमान के होकर हमी दिलाने वाले हैं और श्रीजैन कुमार सम्म ने बैसा लिखकर कैसे अपने बचपन का प्ररिचय दिया है। भार्यसमाजको चासे बातें स्वीकार न करने का कारण पार्य ममाजी भाइयों के युक्ति और प्रमाणों से प्रार्य समाज भवन में करेवार बतला. या जा चुका था जैसा कि पूर्व ही प्रकाशित हुआ है। तारीख को ही है तारीख को शास्त्रार्थ मंजरं करने का कारस कम्योंकि हम लोगों की बस्तनीय रीति से इस बातका पता लक करा पाकिआर्यसमाज एक दिन बोचा लेकर मैजिष्टेट को शान्ति भङ्ग होने का भय दिखा उसकी आज्ञा से शाखार्य बन्द कराना चाहता था और हम लोगों को यह बात कदापि इष्ट न थी-हम लोग पाहते थे किशनार्य हो ही, असाही कारण उनकी और समा बातें मंजूर कर लेने पर भी हम लोग तारीख को ही भावार्य मा. रम्भ होने की बात पर डटे रहे। पर जब यह देखा कि प्रार्य समाज इस बहाने को ही लेकर सामार्थ से हटा जाता है और उसका दोष मारे मत्थे पटकता है तब हमको उसकी तारीख की बात भी स्वीकार करना पड़ी ॥ 1. हम जानते हैं कि भावार्थ शान्ति से ही होता है और वह शान्ति बहुत भीड़ होने पर भी कायम रह सक्ती है जैम कि तारीख ३० जून और ६ जुलाईके मौखिक शाखाओंके समय पीजैनकुमार सभाने अपने उत्तम. प्रवन्ध द्वारा सबको करके दिखा दिया। फिर प्रचलिक शास्त्रार्थ नाम रख न मालम भार्यसमाज पक्षों चुपचाप कुहिपाने ही गुड़ फोड़ना चाहकर पब्लिकको मानेसे रोकता था .... ... पाठको ! यदि आर्यसमाज निज धर्म रक्षार्थ इस.प्रकार मिथ्या बातोंको प्रकाशित कर सर्वसाधारणको धोखे बालता हो तो आपको भावार्य न करना चाहिये मोंकि उसके न्यायदर्शन के चतुर्थ अध्यायका पचासवां (अन्तिम ) सूत्र यह है कि "तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ जल्पवितरडे बीजारोह रक्षणार्थ कबटकशाखावरणवत्" अर्थात् जैसे बीजाकुरको रक्षाके लिये के. पटक माखाओंका जावरण किया जाता है वैसे ही तत्व निर्णयको रक्षाके लिये। 71

Loading...

Page Navigation
1 ... 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128