Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 61
________________ (५९) न होने के अर्थ समाजने विधाये थे न कि हम लोगों से शास्त्रार्थ करने को। निस्सन्देह आर्य समाज मे मह कहा था कि यदि आप अभी शास्त्रार्थ कर. ना चाहते हैं तो बाहर चलिये पर हम लोगों ने यह कहा कि हम लोग अभी प्रस्तुत हैं पर पहिले नियम तय कर लीनिये क्योंकि हम अनिमम काम नहीं कर सक्त। पुलिम अपने पाप नहीं पायी वरन आर्यसमाज के बुलाने से पायी और उसने हम लोगों से पूछा कि आप लोग कब तक यहां ठहरेंगे। जबाब दिया गया कि जब तक शास्त्रार्थ के मियम न तय हो जांय या प्रार्य समान हम लोगों को चले जानेकी आज्ञा न दे। हम लोग शान्त वैठे थे इसलिये पुलिस कुछ न कर सकी। अलग कमरे में अकेले मिपम तय करनेके अर्थ चलनेको कहगा हम लोगों को अपने स्थानसे उठानेके अर्थ था जिसको समझ कर हम लोग वहीं डटे रहे। आर्य समाज की कही हुई चारों वातें प्रथम टिकट द्वारा प्रबन्ध करना शास्त्रार्थ के पब्लिक होने द्वितीय अपने जिम्मे प्रबन्धं लेना आर्य समाजके पर्व ही हम लोगों के प्रबन्धसे अविश्वास और असन्तोष प्रगट करने तृतीय एक दिन व्यर्थ नष्ट होने और शास्त्रार्थ पुनः न हो सकनेके भय और चतुर्थ बिना नियम तय किये हुये अनियम कार्य करने के कारण अनुचित होनेसे स्वीकृत न की गई। तीसरी वातमें आर्य समाजने अपने प्रबन्ध द्वारा के स्थानमें 'कानूनी प्रबन्ध द्वारा' ये शब्द लिख दिये हैं अंर्थात् 'अपने' शब्द के स्थान में काननी शब्द कर दिया है। हम लोगों से समाज मन्दिर में काननी प्रबन्धका कोई जिकर नहीं हुश्रा और समझमें भी नहीं पाता कि का. नूनी प्रबन्धका क्या अर्थ समाज करता है। यदि इससे पुलिसका प्रबन्ध इष्ट है तब तो हमारा यह पहिले ही कहना था कि पुलिसका प्रबन्ध ( जैसी कि हम लोगोंने किया था) रहै जिसपर मौर्य समाजको अपने पैरों खड़े होने ( अपना प्रबन्ध स्वयं करने ) के कारण इन्कार थी । यदि इससे मैं । निदेशी मात्रा प्राप्त करना इष्ट है तो उसकी कोई आवश्यमता न थी | क्योंकि प्रथम ही दो मौखि शास्त्रार्थ ( जिनमें कि लिखित शास्त्रार्थसे विशेष शान्तिः भङ्गकी माशङ्का रहती है.) विना मैजिष्ट्रेटको प्राज्ञा लिये ही बड़ी सफलता और शान्तिसे हो चुके थे । यदि मैजिष्ट्रेट की आज्ञा प्राप्त करनेकी आवश्यकता ही थी तो पहिले प्रार्य समाजने क्यों न लिखा या कहा। -

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