Book Title: Purn Vivaran
Author(s): Jain Tattva Prakashini Sabha
Publisher: Jain Tattva Prakashini Sabha

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Page 24
________________ TV (२२) जिस तिस प्रकार जैन धर्म परित्याग शीर्षक एक विज्ञापन निकालनेको बाध्य किया । अनेक दिवशोंके पश्चाद् पंडित दुर्गादत्तजीसे साक्षात्कार होने पर ज्ञात हुआ कि स्वामी जी और पार्यसमाज ने उनको ऐसे बढ़ावे दिये - कि तुम ऐसे योग्य और ब्राह्मणांके पुत्र होकर इन वैश्यों के शिष्य बने और वैदीका खण्डन करने लगे यह कितने शोक और अधः पतनकी बात है। जब तुमसे ही योग्य नाहीस वेदोंका संबंडन करने लगेंगे तो उनकी कैसे रक्षा होगी। देखो अभी हाल में ही तुम्हारे निकटस्थ प्रिय वन्धु गणपति जी शर्मा मर गये उनके स्थानकी पूर्ति तुम्हें करना चाहिये । हम सन्यासी, तुमसे बड़े और तुम्हारे शिक्षक हैं इस लिये हमारा अनुरोध तुमको अवश्य मानना चाहिये। हमारे जीते तुम जैन धम्मैमें नहीं जा सकते। इत्यादि । स्वामी जी और आर्यसमाजकी इन हृदय विदारक बातोंने पंडित जीके हृदयको (जो कि उनके निकटस्थ प्रिय वन्धु पंडित गणपति जी शर्माके अकालिक वियोगके कारण-जिसकी कि सूचना पंडित जी को आज ही प्राप्त हुई थी-प्रत्यन्त शोकाकुल था ) पिघला दिया और वह अपने नैतिक धैर्यसे च्युत हो गये । बहुत दवाव पड़ने पर उन्हें स्वामी जी और आर्यसमाजका डापट किया हुमा निम्न विज्ञापन प्रकाशित करने की अनुमति देनी ही पड़ी। जैनधर्म परित्याग ॥ कल जो मेरा लैक्चर जैनसभा वैदिकधर्म और जैनधर्मकी तुलना इस विषयपर हुमा था और उस विज्ञापनमें वेदोंकी पोल खोलना भी जैन भा. इयोंने प्रकाशित किया था, परंच दिनमें शास्त्रार्थ जोके श्रीस्वामी दर्शना. नन्द जीके साथ जैन पंडित गोपालदासजी बरैय्याका हुआ था उस समय परिणामको देखकर मुझे पूर्व कृत कर्मोंपर अत्यन्त पश्चाताप करना पड़ा और मैंने अपने व्याख्यानमें वेदोंकी पोल खोखनेके स्थानपर वेदोंका महत्व ही दर्शाया आज भी मैं जैन धर्म प्रभावका प्रायश्चित्त करके वेदोंके महत्वपर कुछ वर्णन करूंगा। ... समय-सायंकाल ८ बजे से स्थान-आर्यसमाज भवन अजमेर। ६० दुर्गादत्त शर्मा. ता० १-७-१२ ई०

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