Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 13
________________ ६.] प्रतिक्रमण विधि संग्रह भाविक है। जिनकाल में जैन श्रमणों का विहार विशेषतः उत्तर पूर्व के भारतीय प्रदेशों में होता था। स्थविर काल में कतिपय प्रदेश . विहार क्षेत्र में से छूटकर विहार का केन्द्रस्थान मध्यभारत बना था । उसके बाद निर्ग्रन्थ श्रमण समुदाय उससे भी पश्चिम की तरफ विचरने लगा था। इस प्रकार भिन्न-भिन्न काल और भिन्न भिन्न क्षेत्रों के प्रभाव हमारे आचारों और अनुष्ठानों पर पड़े थे। इस परिस्थिति में आज़. कोई यह कहे कि आज के हमारे प्राचार-अनुष्ठानों जैसे ही पूर्वकाल में भी थे, तो यह कथन वास्तविकता से कुछ दूर हो जायगा। मानव स्वभाव की सुखशीलता के कारण उसके प्राचार तथा कृतियों में . प्रतिक्षण परिवर्तन आया करता है, पर मनुष्य को तत्काल इसका भान नहीं होता। आज के अपने भिन्न-भिन्न देशों की लिपियां सूत्र- . कालीन ब्राह्मी लिपि के ही परिवर्तित रूप हैं । इसी प्रकार सूत्रकालीन मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी आदि प्राचीन भाषाओं से उत्पन्न भाषाओं से उत्पन्न आज की हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाएं हैं। फिर भी इनका जन्मदात्री मूलभाषायों के साथ इतना अन्तर पड़ गया है कि इन भाषाओं का परस्पर सम्बन्ध है यह भी कोई समझ नहीं सकता । जैसे लिपियों और भाषाओं पर देश काल का असर पड़ता है वैसे ही साधुओं और गृहस्थर्मियों के आचार-अनुष्ठानों पर देशकाल का जबर्दस्त असर पड़ता है। ... जिनकाल में और स्थविरकाल में हमारे प्रतिक्रमण की क्रिया किस प्रकार की थी, यह कहना कठिन है । कारण कि मूल सूत्रों में इसकी विस्तृत विधियाँ दृष्टिगोचर नहीं होती, प्राचीन नियुक्तियों में अथवा भाष्यों में इस विषय का व्यवस्थित विधान उपलब्ध नहीं होता । कदाचित् व्यवच्छिन्न हुए प्राचीन सूत्रों में इसका प्रतिपादन

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