Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 67
________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह .. . ___ तथा तीनों प्रतिक्रमणों के कायोत्सर्गों में भी उद्योतकर-चिन्तन का फेरफार है, पाक्षिक में १२ उद्योतकर, चातुर्मासिक में २० उद्योतकर. और वार्षिक (सांवत्सरिक) प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में ४० चतुर्विंशतिस्तव और १ नमस्कार का चिन्तन करना चाहिये, संबुद्ध क्षमापन में क्रमशः पाक्षिक में ३, चातुर्मासिक, में ५ और वार्षिक प्रतिक्रमण में ७ साधुओं को खमाना चाहिए ॥७८।। .. क्षायोपशमिक भाव से प्रौदयिक भाव के वश गये हुए प्रतिक्रामक को फिर औपशमिक भाव में आना इसका नाम प्रतिक्रमण है ॥६६॥ . प्रतिक्रमण प्रतिक्रामक और प्रतिक्रान्तन्य क्रमशः अतीत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) और अनागत काल में होते हैं ।।८०।। प्रतिक्रमण : आठ प्रकारक होते हैं देवसिक, रात्रिक, इत्वरिक, यावत्कथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थक ॥८१॥ जैसे घर प्रतिदिन साफ किया जाता है फिर भी पक्ष की संधियों में विशेष प्रकार से झाड़ा जाता है उसी प्रकार यहाँ, भी समझ लेना चाहिए ॥२॥ प्रतिक्रमण के ८ दृष्टान्त हैं--मार्ग १, प्रासाद २, दूध ३, विषभोजन ४, तडाग ५, दो कन्याएं ६, पतिमारिका ७ और अगद ८ ये आठ दृष्टान्तों के नाम हैं ।।८३।।

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