Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 117
________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह रात्रिक प्रतिकमण विधि-- ___ देवसि. नातक्रमण रात्रि के पहले प्रहर तक करना सूझता है, रात्रिक प्रतिक्रमण आवश्यक चूणिक अभिप्राय से दिवस के प्रथम प्रहर तक और व्यवहार के अभिप्राय से पुरिमार्ध तक हो सकता है । "जो वट्टमाण मासो, तस्स य मासस्स होई जो तइयो। तन्नामयनक्खत्त, सीसत्थे गोस पडिकमणं ।।१।।"...' अर्थ-जो मास चलता हो उससे तीसरे मास के नाम का नक्षत्र , मस्तक पर आये तब रात्रिक प्रतिक्रमण होता है। जैसे वर्तमान मास श्रावण है तो आश्विन मास उसका तीसरा हुआ, आश्विन का नाम नक्षत्र अश्विनी है, वह मध्याकाश में आये तब समझना कि रात्रिक प्रतिक्रमण का समय हो गया। - रात्रिक प्रतिक्रमण में आचार्यादि ४ को वांदकर भूमि तलपर शिर रखके “सव्वस्सवि राइय" इत्यादि पाठ बोलकर शक्रस्तव पढ़े और खड़ा होकर सामायिक, कायोत्सर्ग सूत्र पढ़ कायोत्सर्ग करे उद्योतकर का चिन्तन कर पार ऊपर उद्योतकर पढ़कर दूसरा कायोत्सर्ग करे, दूसरे में भी उद्योतकर का चिन्तन कर श्रुतस्तव पढ़कर तीसरा कायोत्सर्ग कर यथाक्रम रात्रिक अतिचारों को याद करे, सिद्धस्तव पढ़ के संडाशक प्रमार्जन कर बैठके मुहपत्ति की प्रतिलेखना करे, वन्दनक दे और पूर्ववत् पालोचना सूत्रपठन वन्दनक, क्षामणक, वन्दनक, गाथात्रिक पठन, कायोत्सर्ग सूत्रोच्चारणादि करके पाण्मासिक तप चिन्तन का कायोत्सर्ग करे उसमें विचारे"श्रीवर्धमान जिनके तीर्थ में पाण्मासिक तप वर्तमान है, पर मैं इसे कर नहीं सकता-इसी प्रकार एक एक दिन कम करता हुषा उनतीस दिन कम कर उनतीस दिन कम छः मास भी नहीं कर

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