Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 118
________________ [१११ प्रतिक्रमण विधि संग्रह सकता, ऐसे पांच, चार, तीन, दो, एक मास भी नहीं कर सकता, यावत् तेरह दिन कम मास, चोतीस भक्त बत्तीस भक्त आदि दो दो भक्त कम करता हुआ यावत् चतुर्थ भक्त आयंबिल, निर्विकृतिक एकाशनादि से उतरता हुआ पौरुषी, नमस्कार सहित पर्यन्त में से जो तप कर सकता हो वह मन में निश्चित कर कायोत्सर्ग पारे। उद्योतकर पढ़कर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनापूर्वक वंदनक देकर कायोत्सर्ग में चिंतित तपका गुरु-मुख से अथवा स्वयं प्रत्याख्यान करे, बाद में "इच्छामोऽणुसटुिं" कहता हुआ जानुषों के बल बैठकर तोन वर्धमान स्तुतियाँ पढ़कर मंद स्वर से शक्रस्तव पढ़े । खड़ा होकर "अरिहंत चेइयाणं" इत्यादि पाठपूर्वक चार स्तुतियों से चैत्यवन्दन करे। "जावंति चेइयाई" इत्यादि दो गाथायें, स्तव और प्रणिधान गाथाएं म पढ़े" बाद आचार्यादि को वंदन करे, समय होने पर प्रतिलेखनादि करे । इति रात्रिक प्रतिक्रमण विधि । (प्रतिक्रमरण सामाचारी समाप्ता)

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