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प्रतिक्रमण विधि संग्रह
परिमित श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करके दो क्षमाश्रमणों से स्वाध्याय के आदेश मांगकर जानुओं के बल बैठकर तीन नमस्कार पढ़ने के बाद विघ्न के अपहारार्थ श्रीपार्श्वनाथ को नमस्कार, शक्रस्तव और “जावंति चेइयाई” यह गाथा पढ़कर क्षमाश्रमणपूर्वक " जावंत hs वाहू" यह गाथा और पार्श्वनाथ का स्तव योगमुद्रा से और प्रणिधान की दो गाथायें “मुक्ताशुक्ति मुद्रा से" पढ़के क्षमाश्रमणपूर्वक सिर नवाँकर "सिरिथंभणयपुरद्वियपास सामिणो इत्यादि दो गाथायें पढ़कर "वंदरण वत्तियाए" इत्यादि पाठ बोले और ४ लोगस्स का कायोत्सर्ग कर चतुर्विंशतिस्तव पढ़े । यह प्रतिक्रमण विधि शेष पूर्व पुरुष परंपरागत है । "प्रायरणा विहु आरणा" इस वचन से कर्तव्य ही है । जैसे स्तुति त्रिक पठनानंतर शक्रस्तव, स्तोत्र, प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग करते हैं।
पूर्वकाल में गुरु द्वारा एक स्तुति बोलने पर सर्व साधुओं के वर्धमान स्तुतित्रय पठनपर्यंत प्रतिक्रमण था । इसीलिए स्तुतित्रय पाठ के बाद में छिन्दन (डों) का दोष नहीं माना जाता ।
श्री जिनप्रभुसूरिजी ग्राड के अर्थ में "छिन्दन" शब्द लिखते हैं और इसके एकार्थक नाम - "छिन्दन, अन्तरणि, आगलि" बताते हैं । छिन्दन पर विवेचन करते हुए आचार्य कहते हैं- छिन्दन दो प्रकार का होता है - आत्मकृत और परकृत | अपने शारीरिक अंग आदि का बीच में चलना "आत्मकृत छिन्दन" है और मार्जारी आदि अन्य प्राणी का बीच में होकर निकलना उसे "परकृत छिंदन" कहते हैं ।" पाक्षिक प्रतिक्रमण में प्रत्येक क्षामरणक करने वालों को पृथकु आलोचक को छोड़ किसी का “छिन्दन दोष नहीं होता" । इसी कारण से तो