Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 95
________________ ८८] प्रतिक्रमण विधि संग्रह खमावे, फिर दो वन्दनक देकर तप चिन्तन का कायोत्सर्ग करे। मुख वस्त्रिका की प्रतिलेखना कर दो वन्दनक दे और प्रत्याख्यान करे। "इच्छामो अणुसटुिं" कहकर तीन स्तुति बोले-देव वन्दन करे और बहुवेल कह कर प्रतिलेखना करे। देवसिकादि प्रतिक्रमण विधि--- "जिण मुणि वंदण अइया रुस्सग्गो पुत्ति वंदणा लोये। सुत्तं वंदरण खामण, वंदण चरणाइ उस्सग्गा ॥४॥ . उज्जो दु इक्किक्का, सुअखित्त स्सग्ग पुत्ति वंदणयं । थुइतिअ नमुत्यु थुत्त, पच्छित्त स्सग्गु सज्झामो । ५।। अर्थ-'देवसिक प्रतिक्रमण में जिनवन्दन और मुनिवन्दन कर अतिचारों की चिन्तना के लिये कायोत्सर्ग करना, कायोत्सर्ग पार कर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करना और दो वंदनक देना और "अब्भुट्ठियो०" खमाकर फिर दो वंदनक देना और चारित्रादि की शुद्धि के लिये कायोत्सर्ग करने । कायोत्सर्गों में क्रमशः दो; एक और एक उद्योतकरों का चिन्तन करना। फिर श्रुतदेवी और क्षेत्रदेवता के कायोत्सर्ग कर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करना और वन्दनक देकर वर्धमान तीन स्तुतियों का पाठ करना। शक्रस्तव बोलकर स्तोत्र पढ़ना। देवसिक प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग करके स्वाध्याय करना ॥४-५॥ पाक्षिकम् -- 'पुत्तिवंदण संबुद्धा,-खामणा लोए वंद पत्तेयं । खामण-वंदण समइय-दंडयसुत्त निसिन सुत्त ।।६।। सामाइयदंडय उस्सग्गा, पुत्ती वंदणय खाम चउथोभा। सुअठाणे सिज्जसुरुस्सग्गोऽजिअ संति थुत्तं च ॥७॥

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