Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 103
________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह एवं खित्तसुरीए, उस्सग्गं कुणइ सुणइ देइ थुः । पढिउ' च पचमगल, मुनविसइ पमज्ज सडासे ।।२२।। पुव्वविहिणेव पेहिय, पुत्तिदारूण वदरण गुरुणो। इच्छामो अणुसलुि ति भणिय जाणूहि तो ठाई ॥२३॥ गुरुथुइगहणे थुई तिन्नि वद्धमाणक्खरस्सरा पढइ । सच्कत्थव यवं पढिय कुणइ पच्छित्तउस्सग्ग ॥२४॥ एव ता देवसिय, राइयमवि एवमेव णवरि तहिं । पढमं दाउं मिच्छामि दुक्कड पढइ सक्कथय ।।२५।। उट्ठिय करेइ विहिणा उस्सग्ग चितए (अ) उज्जोय । बीय दंसणसुद्धीए, चितए तत्थ वि एमेव ॥२६॥ तइए निसाइयारं, जहक्कम . चितिऊण पारेइ । सिद्धत्थव पढित्ता, पमज्ज. सडासमुवविसइ ॥२७।। पुव्व च पुत्तिपेहण, वदणमालोयसुत्तपढण च । वंदण-खामण-वदण गाहातिगपढणमुस्सग्गो ॥२८॥ तत्थ य चिंतइ संजम-जोगाण न होइ जेणं मे हाणी। तं पडिवज्जामि तव, छम्मासं त न काउमल ॥२६॥ एगाइ-इगुणतीसूणिय पि न सहो न पचमासमवि । एवं च उ ति दुमासे, न समत्थो एगमासं पि ॥३०॥ जा तं पि तेरसूण, चुत्तीसइमाइतो दुहाणीए । जाव चउत्थं तो आयंबिलाइ जा पोरिसि नमो वा ॥३१॥ ज सक्कइ तं हियए, धरित्तु पारित्तु पेहए पुति । दाउ वंदणमसढो, त चिय पञ्चक्खए विहिणा ॥३२॥ इच्छामो अणुसट्ठि-ति, भणिय उवविसिम पढइ तिन्नि थुई । मिउ सद्देणं सक्कत्थयाइ तो चेइए वंदे ॥३३॥

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