Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 112
________________ [१०५ प्रतिक्रमण विधि संग्रह तांग होकर दोनों हाथों में विधिपूर्वक रजोहरण मुखवस्त्रिका पकड़कर देवसिक अतिचारों को गुरु के आगे प्रकट करने के लिये आलोचना पाठ पढ़े । बाद में मुहपत्तिः से कटासन अथवा पाद प्रोंछन की प्रतिलेखना कर बायाँ पग नीचे और दाहिना जानु ऊँचाकर दोनों हाथों से मुखवस्त्रिका पकड़ कर प्रतिक्रमण सूत्र पढ़े । सूत्र की समाप्ति में दो वंदनक देकर द्रव्य भाव से खड़ा होकर "अब्भुट्ठियोमि आदि पाठ से मंडली में ५ साधु हों तो तीन को क्षमाना, प्रतिक्रामक साधु सामान्य हों तो स्थापनाचार्य को खमाने के बाद ३ साधूओं को "अब्भू ट्ठियो" खमाना चाहिये । फिर कृतिकर्म करके खडा हो सिर पर हाथ जोड़ करके "आयरिय उवज्झाए" इत्यादि तीन गाथाएँ पढ़ । सामायिक सूत्र और कायोत्सर्ग दंडक पढ़कर चारित्राचार की विशुद्धि के लिए दो चतुर्विंशतिस्तव का कायोत्सर्ग करे । गुरु के कायोत्सर्ग . पारने पर कायोत्सर्ग पारे, सम्यक्त्व शुद्धयर्थ उद्योतकर पढ़कर • सव्वलोए अरिहत" चैत्याराधनार्थ कायोत्सर्ग करे, उद्योतकर का चिन्तन करे । पारकर श्रु तशुद्धयर्थ "पुक्खरवरदीवढ्ढे' पढ़े, फिर उद्योतकर १ का कायोत्सर्ग कर, पारकर सिद्धस्तव पढ़ के श्रुतदेवता का १ नमस्कार का कायोत्सर्ग कर उसकी स्तुति बोले, अथवा सुने । इसी प्रकार क्षेत्र देवता का कायोत्सर्ग कर १ नमस्कार का चिन्तन करे । पार कर स्तुति कहे वा सुने और नमस्कार मंगल पढ़कर संदंशक प्रमार्जन पूर्वक बैठकर प्रथम की तरह मुहपत्ति प्रति लेखनाकर वंदनक दे "इच्छामो अणुसटुिं" यह बोलकर दोनों जानुअों के बल बैठकर वर्धमान अक्षार स्वर से तीन स्तुतियां पढ़कर शक्रस्तव तथा स्तोत्र पढ़के प्राचार्यादि को वन्दन करे । प्रायश्चित्तविशोधनाथ कायोत्सर्ग करके उद्योतकर ४ का चिंतन करें। (इति देवसिक प्रतिक्रमण विधि,

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