Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 84
________________ (৩৩ प्रतिक्रमण विधि संग्रह उक्तः ओवतः श्रावक प्रतिक्रमण विधिः । भावार्थ--रात्रिक प्रतिक्रमण विधि का विधान भी लगभग इसी प्रकार का है। विशेष इतना है-२ कायोत्सर्ग एक एक लोगस्स परिमित कर, तीसरे कायोत्सर्ग में राज्यतिचारों का चिन्तन करे । सिद्धों की स्तुति पढ़कर बैठ के आलोचनासूत्र पढ़ और क्षामणादि पूर्ववत् कर, फिर आचार्यादि, संघ, सर्वजीवक्षामणाप्रतिबद्ध गाथा तीन पढ़ें फिर पाण्मासिक तपस्या से प्रारम्भ कर एक २ दिन की हानि करता हुआ जो तप करना हो वहां तक नीचे उतर, फिर कायोत्सर्म पारकर चिन्तित नमस्कारसहित आदि कायोत्सर्ग चिन्तित तपका गुरुसाक्षिक प्रत्याख्यान करे, उसके बाद स्तुति आदि पूर्ववत् बोलकर चैत्यवंन्दन करे और प्रतिक्रमण पूराकरे। यह सामान्य रूप से श्रावक प्रतिक्रमण विधि कही है। श्री चन्द्र परिकृत सुवोधा सामाचारीगत प्रतिक्रमण विधिः• “साहु-सावयाणं" राइपडिक्कमण विही जहा "इरिया-कुसुमिणस्सग्गो, जिण-मुणिवंदण तहेव सज्झाओ । - सव्वस्सवि सकत्थउ तिन्नि उस्सग्गा उ कायव्वा ॥१॥ चरणे दंसण नाणे, दुसुलोगुज्झोय तइय अइयारा । पोत्ती वंदण आलोय सुत तह वंद-खामणयं ॥२॥ चंदण तव-उस्सग्गो, पोत्ती वंदणय पच्चखाणं तु। . अणुसट्टि तिन्नि थुई, वंदण-बहुवेल-पडिलेहा ॥३॥ (इति रात्रिकम्)

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