Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 89
________________ ८२) प्रतिक्रमण विधि संग्रह सूत्र पढ़ना । दो वंदन, क्षामरगा, फिर वंदन और बाद में ३ कायोत्सर्ग चारित्र, दर्शन और ज्ञानशुद्धि के निमित्तक, इनमें क्रमश: दो, एक और एक उद्योतकरों का चिन्तन करना, श्रुत-क्षेत्र देवता के दो कायोत्सर्ग, मुहपत्तिप्रतिलेखना, वन्दन, फिर त्रिस्तुति पाठ और स्तोत्रपाठ | पाक्षिक के दिन दैवसिक प्रतिक्रमण के मध्य में 'प्रभुश्रोमि आराहणार' यहाँ से लेकर 'वंदामि जिणे चउवीसं' तक बोलकर पाक्षिक मुहपत्ति प्रतिलेखना, वन्दन, संबुद्धाक्षामणा करना पाक्षिक प्रतिक्रमण में तीनों को, चातुर्मासिक में पाँचों को और सांवत्सरिक में सात साधुओं को खमाणा । अब पाक्षिक आलोचना चातुर्मासिक और सांवत्सरिक आलोचना में गुरु आदेश करे " पडिक्कमह चतुर्थ भक्त, षष्ठभक्त और अष्टम भक्त का गुरु प्रदेश करे, फिर गुरु क्षमाश्रमण देकर कहे - "इच्छाकारेण अमुक मुनि" यह सम्बोधन सुनकर आमन्त्रित मुनि वदनपूर्वक खड़ा होकर कहे - " इच्छामि अरगुर्साट्ठ", गुरु कहे "प्रभुट्टिमोऽहं पत्तेयखामणेणं अभ्यन्तर पक्खियं खामेउं" शिष्य कहे - " अहमवि खामे म तुम्भे", यह कहकर गुरु किंचित शरीर नमाकर "खामेमि पक्खियं पन्नरसह्यं दिवसाणं पन्नरस राईणं जं किंचि प्रपत्तियं परपत्तियं" इत्यादि सम्पूर्ण क्षामरणक पाठ बोले और कहे हे तपोधन ! अप्रीति, असमाधान, असंतोष, आदि हमारी तरफ से कुछ हुआ हो उन सबका "मिच्छामि दुक्कड” देता हूँ | तब शिष्य कहेप्रभो ! मैंने कुछ प्रभक्ति, अविनय अवज्ञा, आशातना आदि की हो उन सबको कृपा करके क्षमा करें, मैं मिथ्या दुष्कृत करता हूँ । इस प्रकार सर्व साधु यथाज्येष्ठ क्रम से क्षामणक करते हैं, श्रावक इस प्रकार कहता है - "प्रभो ! जो कोई मैंने आपकी अभक्ति, अविनय

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