Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 83
________________ ७६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह गुरु को क्षमाये । समर्पणा वन्दन कर प्राचार्यादि को क्षमाने के लिए "पायरियउवज्झाए" इत्यादि तीन गाथा पढ़कर करेमि भन्ते तथा कायोत्सर्ग दण्डकपठनपूर्वक चारित्राचार की विशुद्धि के लिए कायोत्सर्ग करे, कायोत्सर्ग में २ लोगस्स का चिन्तन करें ऊपर प्रकट लोगस्स कहकर 'सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं इत्यादि पाठपूर्वक एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करे। पुक्खरवरदी., सुअस्स भगवमो०, १ लो० । 'सिद्धाणं बुद्धाणं' इस सूत्र से भावनापूर्वक सिद्धों की तीन स्तुतियां बोले वर्तमान काल में आचार्यपरम्परागत दूसरी . गाथाएं भी पढ़कर श्रुतज्ञानको समृद्धि के लिए श्रृतदेवता का : कायोत्सर्ग करे और क्षेत्रादि समाधान संपादन के लिए क्षेत्रदेवी का . कायोत्सर्ग करे और स्तुति पढ़े अथवा सुने, फिर संदंशकादि प्रमार्जनपूर्वक बैठकर मुख वस्त्रिका की प्रतिलेखना करके समाप्ति का वन्दन कर, फिर गुरु के एक वर्धमानस्तुति बोलने पर सभी स्तुतित्रय पढ़ें, फिर प्रणिपात दण्डकादि सर्वसमाचार्यागत विधान करे । यह देवसिक प्रतिक्रमण विधि कही। रात्रिकोऽप्येवमेव, नवरं का० १ लो० । १ लो.। निशातिचारचिन्तनं तृतीये। सिद्धस्तुति च विधाय x उपविश्य आलोचनसूत्रपठनक्षामणादिकं पूर्ववत् कृत्वा आचार्यादिसंघ-सर्वजीव क्षामणाप्रतिबद्धार्थगाथात्रयं ४ पठित्वा x पाण्मासिकायाः समारभ्य एकदिनादिहान्या तावद् नयति येन कृतेन गुरु नियुक्तस्वाध्यायादिप्रयोजन हानिर्नोपजायते तावन्माो एव संतिष्ठते । प्रतिपन्न प्रतिमोऽन्यो वा यथाशक्तिमानतो जघन्येनापि नमस्कारसहितं प्रतिपद्य तदेव विधिवत, गुरुसाक्षिकं प्रत्याख्याति, ततः स्तुत्यादिके पूर्ववत कृते चैत्यवन्दने च समाप्तिर्भवतीति।

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