Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 86
________________ [e प्रतिक्रमण विधि संग्रह अब दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि कहते हैं प्रथम जिन तथा मुनि वन्दन करके प्रतिचारों की आलोचना का कायोत्सर्ग करे। फिर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर वन्दनक दे | वन्दना करके दैवसिक अतिचारों की आलोचना करे । फिर प्रतिक्रमण सूत्र पढ़ े । वन्दना करे । 'अब्भुट्टियो० ' खमाये, फिर वन्दना कर तीन कायोत्सर्ग करे | चारित्र की शुद्धि के लिये, दर्शनशुद्धि के लिये और ज्ञानशुद्धि के लिये क्रमशः दो तथा एक एक उद्योतकरों के कायोत्सर्ग करे, . फिर श्रुतदेवी आदि के दो कायोत्सर्ग कर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखना कर वन्दना करें और वर्धमान तीन स्तुतियां पढ़ और स्तव पाठ करे। यह दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि है । अब पाक्षिक प्रतिक्रमण की विधि कहते हैं- दैवसिक प्रतिक्रमण सू : कर पाक्षिक मुखवस्त्रिका की प्रति• लेखनां करे। दो वन्दनक दे, संबुद्ध खामणा खमाये । पाक्षिक आलोचना करे फिर दो वन्दनक दे, फिर प्रत्येक क्षामरणक खमावे, वन्दनक - पूर्वक पाक्षिकसूत्र पढ़े पाक्षिकसूत्र पूरा करने के बाद प्रतिक्रमण सूत्र पढ़ कर खड़ा होकर कायोत्सर्ग करे, पाक्षिक कायोत्सर्ग के अन्त में मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनपूर्वक वन्दनक देकर समाप्ति का प्रभुट्टियो खमावे, अन्त में "पियंच मे० " इत्यादि चार क्षामणक बोले । यह पाक्षिक आदि की विधि है ।

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