Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 76
________________ [६ प्रतिक्रमण विधि संग्रह सिकश्विन्तयति कायोत्सर्ग पारयित्वा मुखवस्त्रिकादि प्रतिलेखनापूर्वं वन्दनकं दत्त्वा मनश्चिन्तित प्रत्याख्यान विधत्ते । तदनु. च "इच्छामो अरगुट्ठि ति भणित्वोपविश्य" स्तुतित्रयादि पाठपूर्व चैत्यानि वन्दते उभयोरप्यावश्यकयोराद्यन्तेषु मंगल्यार्थं चैत्यवन्दनेष्वधिकृतेष्वपि यदर्हमुखे प्रदोषे च विस्तरतो देववदनं तद्विशेषमंगल्यार्थं संभाव्यते । एवं च रात्रिक प्रतिक्रमणं विधाय साधुः कृतपौषधः श्राद्धश्च क्षमाश्रमणद्वयेन भगवन् ! बहुवेलं संदिसावे मि बहुवेलंकरेमि इति भणति ततश्चतुर्भिः क्षमाश्रमणैः श्री गुर्वादीन् वंदन्ते । श्राद्धस्तु प्रढ्ढा इज्जेसु इत्यादि च पठति । ततः प्रतिलेखनां विधत्ते X इतिरात्रिकप्रतिक्रमण विधिः ) ( प्रतिक्रमण गर्भ हेतु पत्र १० - ६ - १२) अर्थ - रात्रि के पिछले पहर में निद्रा का त्याग कर ईरियापथिकी प्रतिक्रमण करके क्षमाश्रमणपूर्वक "कुसुमिणदुसुमिण प्रोहडावरिणयं राइयपायच्छित्त विसोहरणत्थं काउस्सग्गं करेमि ० " इत्यादि पढ़कर चार उद्योतकरों का कायोत्सर्ग करे । श्रावक सामायिक न किया हो तो सामायिकोच्चारणपूर्वक कायोत्सर्ग करता है । चैत्य वंदना कर . स्वाध्याय कायोत्सर्गादि धर्मव्यापार करे जब तक रात्रिक प्रतिक्रमण का समय न हो । प्रतिक्रमण का समय होने के बाद चार क्षमाश्रमणों गुरु. आदि को वंदन कर क्षमाश्रमरणपूर्वक " राइप डिक्कमणइ ठाउ" इत्यादि पढ़कर पृथ्वी पर सिर नवांकर " सव्त्रसविराइय" इत्यादि सूत्र पढ़के शक्रस्तव पढ़े । खड़ा होकर 'करेमि भंते सामाइयं' इत्यादि सूत्रपाठपूर्वक तीन कायोत्सर्ग करे । सिद्धस्तव पढ़कर संडाशक प्रमार्जन पूर्वक बैठे और मुखवस्त्रिका दि प्रतिलेखनापूर्वक वन्दनक दान आदि विधि करे जो प्रतिक्रमण के अन्तिम कायोत्सर्ग तक समाप्त हो । इस कायोत्सर्ग से

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