Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 74
________________ [६७ प्रतिक्रमण विधि संग्रह जिन छठे में, सप्तम अधिकार में श्रुतज्ञान, अष्टम में सर्वसिद्धों की स्तुति, नवम में तीर्थपति वीरस्तुति, दशवें में उज्जयन्त स्तुति, ग्यारहवें में अष्टापदादि स्तुति और अन्तिम बारहवें अधिकार में सुदृष्टिदेवता का स्मरण करना चाहिए। इन बारह अधिकारों के प्रथम पद निम्न प्रकार से हैं-- "नमुत्थुणं १, जे अइया २, सिद्धा ३, अरिहंत चेइमाणं ४, लोग़स्स ५ । सव्वलोए ६ पुक्खरवरदी ७ समतिमिर ८ सिद्ध । जोदेवा ६ उज्जित १० चत्ता ११ वेत्रावच्चग १२॥" अधकारी के प्रथम पद हैं। इस गाथा के विधानानुसार देववंदन करके चार क्षमाश्रमणों से श्रीगुरु को वन्दन करना। श्रावक गुरु वन्दन के अनन्तर___ "इच्छुकारि समस्त श्रावको वन्दु०" ऐसा बोले, इसके बाद शिर जमीन पर लगाकर 'सव्वस्सवि देवसिअ" इत्यादि सूत्र पढ़कर मिथ्या दुष्कृत दे। यह सकल प्रतिक्रमण का बीजभूत समझना चाहिए । फिर “करेमि भन्ते सामाइयं०" इत्यादि तीन सूत्र पढ़कर के कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में प्रभात की प्रतिलेखना से लगाकर दिवस भर के अतिचारों को चिन्तन करे। “सयणासण" इत्यादि गाथा के चिंतन से अतिचारों का मन में संकलन कर कायोत्सर्ग को पारकर चतुर्विंशतिस्तव पढ़े। संडाशक प्रतिलेखना कर गुरु वन्दन के निमित्त मुखवस्त्रिका और शरीर दोनों को २५ प्रकार से प्रतिलेखित करे । फिर २ वन्दनक दे । यह वन्दना कायोत्सर्ग में याद किये हुए अतिचारों की आलोचना के लिये समझना चाहिये। वन्दनक देकर शरीर नवाँकर कायोत्सर्ग चिंतित और अपने मन से याद रक्खे हुए अतिचारों की आलोचना करते हुआ कहे, "इच्छा

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