Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 72
________________ [६५ प्रतिक्रमण विधि संग्रह कायोत्सर्ग सामाचारी के अनुरोध से कोई प्रतिक्रमण के अन्त में करते हैं, तो कोई उस के आदि में । कायोत्सर्ग पारकर चतुर्विंशतिस्तव पढ़कर क्षमाश्रमण द्वयपूर्वक मण्डली में बैठकर सावधान मन से स्वाध्याय करें। मूल विधि से पौरुषी पर्यन्त स्वाध्याय पूर्ण होता है। वर्तमान में श्रीतपागच्छ की सामाचारी के अनुसार देवसिक प्रतिक्रमण के अनन्तर कम से कम भी पांच सौ माथा परिमाण स्वाध्याय करना चाहिये और पिछली रात्रि में तीन सौ परिमाण । यह दैवसिक विधि कही। (प्रतिक्रमण गर्भ हेतु त्र ६-१०) अथावश्यकारंभे साधुः श्रावकश्चादी श्रीदेवगुरुवंदनं विधत्ते। सर्वमप्यनुष्ठानं श्रीदेवगुरुवंदनविनयबहुमानादिभक्तिपूर्वकं सफलं भवति । x इतिहेतो-दशभिरथिकारैश्चैत्यवन्दना भाष्ये "पढम हिगारे वदे, भावजिणे बीअए य दवजिणे । इग चेइ अठवण जिणे, तइने ३ चउत्थं मि नाम जिणे ४॥१॥ तिहुअणडवणजिणे पुण, पंचमए ५, विहरमाण जिण छठे ६ । सत्तमए सुअनाणं, अट्ठमए सव्वसिद्धथुई ॥२॥ तित्थाहिव वीर थुई, नवमे ६ दसमे अ उज्जयंत थुई। अट्ठावयाइ इगदसि ११ सुदिद्विसुरसमरणा चरिमे ।।३।। नमु १, जे अइ २, अरिहं ३, लोग ४, सव्व ५, पुक्ख ६, तम ७, सिद्ध ८ जे दिवा ।। उज्जि १०, चत्ता ११ वेयावच्चग १२ अहिगार पढमपया ॥४॥" इति गाथोक्तेर्देववंदनं विधाय चतुरादि क्षमाश्रमणैः श्रीगुरून वन्दते ४ श्राद्धस्तु तदनु "इच्छकारि समस्त श्रावकों वंदु" इति

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