Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh
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प्रतिक्रमण विधि सग्रह भणति । एवं च x भूनिहितशिराःX "सव्वस्सवि देवसिअ" इत्यादिसूत्रं भणित्वा मिथ्यादुष्कृतं दत्ते। इदं च सकल प्रतिक्रमणबीजकभूतं ज्ञेयं । ४ "करेमि भंते सामाइअमित्यादिसूत्रत्रयं" पठित्वाx कायोत्सर्ग कुर्यात कायोत्सर्गे च प्रातःप्रतिलेखनायाः प्रभृतिदिवसातिचारांश्चिन्तयति। मनसा संप्रधार्य “सयणासणे"त्यादिगाथा चिन्तनतः। एतदतिचारचिन्तनं मनसा संकलनं च श्रीगुरुसमक्षमालोचनार्थ x पारयित्वा चतुर्विशतिस्तवं पठेत् x ततश्च जानु पाश्चात्यभागपिंडिकादि प्रमृज्योपविश्य च श्रीगुरूणां वंदनक दानार्थ मुखवस्त्रिकां कायं च द्वावपि प्रत्येकं पंचविंशतिधा प्रतिलिखेत् तदनु वंदनके दद्यात् । एतद्वन्दनं च कायोत्सर्गावधारितातीचारालोचनार्थ x वंदनं प्रदाय सम्यगवनतांगः पूर्वकायोत्सर्गे स्वमनोवधारितान दैवसिकातीचारान् इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसिनं आलोएमीत्यादिसूत्र उच्चारयन, श्री गुरुसमक्षमालोचयेत xएवं देवसिकातीचारालोचनान्तर मनोवचनकायसकलातीचारसंग्राहकं "सव्वस्सवि देवसिअ इत्यादि पठेत । इच्छाकारेण संदिसह इत्यनेनानंतरालोचितातीचार प्रायश्चित्तं च मार्गयेत गुरवश्च "पडिक्कमह" इति प्रतिक्रमणरूपं प्रायश्चित्तमुपदिशति । ..
(प्रतिक्रमण गर्भहेतु पा ३-५) अर्थ-अथवा आवश्यक के प्रारम्भ में साधु और श्रावक प्रथम श्री देवगुरु का वन्दन करते हैं। सर्व प्रकार का अनुष्ठान श्रीदेवगुरु के वन्दन से और विनय बहुमानपूर्वक करने से ही सफल होता है । इसलिए बारह अधिकारों से चैत्य-वन्दन करे, बारह अधिकार चैत्य-वन्दन भाष्य में बताये है। प्रथम अधिकार में भावजिन, दूसरे . अधिकार में द्रव्य जिन, तीसरे अधिकार में स्थापना-जिन, चतथं में नाम-जिन, तीन लोक में जो स्थापना जिन है वे पंचम में, विहरमाण
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