Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 55
________________ ૪૮] प्रतिक्रमण विधि संग्रह सुकयं आरणत्तं पिव लोए काऊण सुकय किइकम्मा । वढढंति आ थुई ओ, गुरुथुइ गहणे कए तिन्नि || ५५ । गुरुथुइगहणे थुइ तिन्नि, वद्धमाणक्खरस्सरा पढइ । सवकत्थवं पनि कुणइ, पच्छित उस्सग्गं ।। ५६ । । पारण वह मुसा वाए, अदत्त मेहुण परिग्गहे चेव । सममेगं व अणुथुइ तिन्नि वर ऊसासा गं हविज्जा हि ॥ ५७॥ पढमं पोरिसि सभायं, बिई झारणं झिआयई । तइआए निद्दमुक्खं तु, सज्झायं तु चतुत्थीए ।। ५८ ।। उक्कोसो सज्झाओ, चउदस पुव्वीण बारसंगाई । इत्तो परिहाणीए, जाव तयत्थो नमुक्कारो ॥ ५६ ॥ बारसविहंमिवि तवे, सब्भितरबाहिरे कुसल दिट्ठे । विवि अ होही, सज्झायसमं तवो कम्मं ।। ६० ।। एवं ता देवसिनं राइमवि एवमेव नवरि तहि । पढमं दाउ मिच्छामि, दुक्कडं पढइ सक्कथयं । । ६१ ।। उट्टि करेइ विहिणा, उस्सगं चितए चउवीस थयं । बीनं दंसण सुद्धीइ, चितए तत्थवि तमेव ||६२ || तइए निसाइआरं, जहक्ककमं चितिऊण पारे । सिद्धत्थयं पढित्ता, पमज्ज संडासमुत्रविसइ ।। ६३ ।। तत्य पढमो चरित्तायारि दंसणसुद्धीइ बीप्रश्रो होइ । सुअनाणस्स य तइओ नवरं चितेइ तत्थ इमं ॥ ६४॥ पुव्वं य व पुत्तिपेहण, वंदरणमालोअ सुत्तपढणं च । वंदण - खामण-वंदण, गाहातिगपढणमुग्गो ।। ६५ ।। वद्धमारण जिणचंदो । ओवमारणेणं ॥ ६६ ॥ " संवच्छरमुसभ जिणो, छम्मासा st विहरिका निरसरणा, जइज्जए

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