Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 59
________________ प्रतिक्रमण विधि मंग्रह कायोत्सर्ग में सयती १ कपित्थ २ घन ३ लता ४ लम्बोत्तर कोण ५ खलिन ६, शबरो ७, वधू ८, प्रेक्षा , वारुणी १०, भमुह ११, अंगुलि १२, शीर्ष १३, पूत १४, हय १५, काय १६, निगड १७, . . उद्धी १८ ॥१४॥ और स्तम्भ आदि दोषरहित कायोत्सर्ग करना चाहिये । नाभि के नीचे और जानुओं के ऊपर कटिपट्टक रहना चाहिये ।।१५।। ..' कायोत्सर्ग में स्थित मनुष्य को निष्प्रकम्प और मौन रहना चाहिये क्योंकि मनको एकाग्र करने से ही मुनि देवसिक अतिचारों को सुखपूर्वक जान सकता है ।।१६।। अतिचारों को जानकरके गुरु के पास उनको प्रकट करना चाहिये। ऐसा करने से वह अपने आत्मा और शरीर को शुद्ध करता है । ऐसा जिन भगवान ने कहा है ।। १७॥ . . कायोत्सर्ग मोक्षमार्ग का दर्शक है यह जानकर धीरपुरुष दिवसातिचारों को जानने के लिए कायोत्सर्ग में स्थिर रहते हैं ॥१८॥ शयन, आसन, अन्न, पान, चैत्य, यतिधर्म, मकान, कायिकी, उच्चार, समिति, भावना और गुप्ति इनके विषय में विपरीत आचरण करना, उसका नाम अतिचार है ।।१९।। प्राभातिक मुहपत्ती प्रतिलेखना करने के समय से लेकर दिनभर के अतिचारों की आलोचना करे, सर्व अतिचारों को याद करके हृदय में स्थापन करे। २०॥ तमाम दोषों को यथाक्रम हृदय में धारण करके कायोत्सर्ग को समाप्त करे, दोषों को क्रमशः हृदय में धारण कर जब तक प्राचार्य कायोत्सर्ग न पारे तब तक अन्य साधु शुभ मानसिक भव से धर्म्य और शुक्त ध्यान ध्यावे ॥२१॥

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