Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 64
________________ [५७ प्रतिक्रमण विधि संग्रह है और गुरु के १ स्तुति कहने पर शेष सभी साधु तीन स्तुतियाँ 'बोलते हैं ।। ५५ ।। वर्धमान अक्षर और वर्धमान स्वर से स्तुतियां बोलते हैं। ऊपर शक्रस्तव पढ़कर दैवसिक प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग करते हैं || ५६|| हिंसा, मृषावाद, प्रदत्तादान, मैथुन और परिग्रह त्याग के व्रतों में स्वप्न आदि में दोष लगा हो तो एक सौ श्वासोच्छवास का कायोत्सर्ग करना ॥ ५७॥ प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करे, दूसरी में ध्यान करे, तीसरी में निद्रा का त्याग करे और चतुर्थ पौरुषी में फिर ध्यान करे ।। ५८ ।। चतुर्दश पूवंधरों के लिये उत्कृष्ट स्वाध्याय द्वादशांगी का पढ़ना होता है इसके नीचे कम होता हुआ कम से कम नमस्कार पढ़ने तक का स्वाध्याय होता है ॥ ५६ ॥ बारह प्रकार का तप जो प्राभ्यन्तर और बाह्य तपों के भेद से कुशल पुरुषों ने बताया है, वह भी स्वाध्याय रूप तप की बराबरी नहीं करेंगा ।। ६० ।। इस प्रकार दैवसिक प्रतिक्रमण कहा है, इसी प्रकार रात्रिक प्रति क्रमण भी किया जाता है। इसमें जो विशेषता है वह नीचे बताई जाती है, रात्रिक प्रतिक्रमण में सामूहिक रात्रिक अतिचारों का मिच्छामि दुष्कृत करके शक्रस्तव पढा जाता है ।। ६१ ॥ फिर उठकर विधि से कायोत्सर्ग किया जाता है उसमें चतुर्विंशति स्तव की चिन्तना होती है, दूसरा दर्शन शुद्धि के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है और उसमें भी चतुविंशतिस्तव का ही चिन्तन होता हैं ।। ६२ ।।

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