Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh
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प्रतिक्रमण विधि संग्रह
समभावि ठिअप्पा, उस्सगं करिअ तो पडिक्कमइ । एमेवय समभावे ठिप्रस्स, तइओवि उस्सग्गो ||४३|| सज्झाय-कारण-तव-प्रो - सहेमु उवएसइयाणे सु । संतगुणकित्तरण, न हुति पुरुनदोमाउ ॥४४॥ विहिणा पारिअ सम्मत्त - मुद्धिहेउ च पढि उज्जो । तह सव्वलो अरहंतं-चेइ माराहगुस्सग्ग ॥४५॥ काउ उज्जोअगरं, चितिअ पारेइ सुद्धसम्मत्तो । पुक्खवरंदी बढ्ढे कहइ सुप्राहणनिमित्त ं ॥ ४६ ॥ पुण वीसुस्सा, उस्सग्गं कुरणइ पारए विहिणा । तो सकुसल कर आ-फलाण सिद्धाण पढइ थयं ॥ ४७ ॥ नमु करे चउव्वीसग "थयं । किइकम्मं नं दुरालोइय - दुप्पडिक्कन्ते अ उस्सग्गो || ४८ ॥ एस चरित्तस्सग्गो, दंसणसुद्वीइ तइअश्रो होइ । सुनारणस्स चउत्थो, सिद्धाण थुई अ किइकम्मं ।। ४६ ।। जिणधम्मो मुक्खफलो, सासयसुक्खो जिणेहिं पन्नत्तो । नरसुर सुहाई अणुसंगिआई इह किसिपलालुव्व ।। ५० ।। मूला उखंधप्प भवोदुमस्स, खंधाउं पच्छा समुविति साही । साहप्पसाहा विरुति पत्ता, तओसि पुष्पं च फलं रसो अ॥ ५ । ।। अह सुअ समिद्धिहेउ सुप्रदेवीए करेई उस्सग्गं ।
थुई ॥ ५२ ॥
चितेइ नमुक्कारं, सुरण व देई व तीइ एवं खेत्तसुरीए उस्सग्गं कुणइ सुणइ देइ थुइ । पढिउ च पंच मंगल - मुव विसइ पमज्ज संडासं ॥५३॥ पुव्वविहिणेव पेहिअ, पुत्ति दाऊण बन्द इच्छामो स ुत्त भणि जाहि तो ठाई ॥ ५४।।
गुरुणो ।
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