Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 46
________________ प्रतिक्रमण विवि संग्रह तइए निसाइयार, चितिअ उकण पार ऊण विहिणाउ । सिद्धथयं पढित्ता, पडिक्कमंते जहा पुचि ।।५००। खामित्त करिति तओ, सामाइयपुव्वगं तु उस्सग्गं। तत्थ य चितिति इम, कत्थनिउत्ता वयं गुरुणा ॥५०२॥ जह तस्स न होइ च्चिय, हाणी कज्जस्स तह जयंतेवं । छम्मासाइकमेणं, जा सक असढभावारणं ॥५०३।। तं हियर काऊणं, किइकम्मं काउ गुरुसमीवंमि । गिण्हंति तओ तं चिय, समंगं नवकार माईप्र । ५०४।। (पंचवस्तुक. पत्र ७४ से ८२ पर्यन्त) दैवसिक प्रतिक्रमण विधि__ भावार्थ-यदि नियाघात प्रतिक्रमण हो तो सब साथ में प्रावश्यक करते हैं और श्राद्ध धर्मकथादि व्याघात हो तो शेष साधु स्थान पर जा बैठते हैं और बाद में गुरु भी आकर अपने स्थान पर बैठते हैं। व्याघात अवस्था में शेष सभी साधु गुरु को पूछकर स्वस्थान पर बैठ जाते हैं और सूत्रार्थों का स्मरण करते हैं। जब प्राचार्य आते हैं तब देवसिक प्रतिक्रमण शुरु करते हैं। यहां “करेमि भंते" इत्यादि सामायिक सूत्र कथन पूर्वक आचार्य सूत्रोच्चारण करें तब शेष साधु भी अपने २ स्थान पर रहे हुए सूत्र का मन में चिन्तन करने के लिए कायोत्सर्ग करें और गुरु उसमें अपने दिन भर को प्रवृत्तियों का दो बार चिंतन करेंगे, तब बहुप्रवृत्ति वाले दूसरे साधु कायोत्सर्ग में अपनी प्रवृत्तियों का एक ही बार चिंतन कर सकेंगे। कायोत्सर्ग की समाप्ति में गुरु के बाद नमस्कारपूर्वक सब कायोत्सर्ग पारें। ऊपर चतुर्विंशतिस्तव दण्डक का उपयोगपूर्वक पाठ बोले, फिर सण्डासक प्रतिलेखना करें शरीर का प्रमार्जन कर सब उपयोग

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