Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh
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प्रतिक्रमण विधि संग्रह • थुइ मगलम्मि गुरुणा, उच्चारिए सेसगा थुई विति । चिठ्ठति तओ थेवं, कालं गुरु पाय-मूलमि ।।४६०॥ पम्हुट्ठमेरसारण-विणओ उण फेडियो हवइ एवं । आयरणाइ सुअदेवय-माईण होइ उस्सग्गो ।।४६१।। एतद् गाथार्धस्य टोका-एतावत् प्रतिक्रमणं, आचरणया श्रुतदेवतादीनां भवति कायोत्सर्गः, आदिशब्दात् क्षेत्र-भवनदेवता परिग्रहं इति गाथार्थः ॥४६१॥
चाउम्मासिय-वरिसे, उस्सग्गो खित्तादेवयाए उ। पक्खिअ-सिज्ज सुरीए, करिति चउमासिए वेगे ॥४६२।। .
वृतो-“चातुर्मासिके वार्षिके च प्रतिक्रमणे' इति गम्यते, कायोत्सर्गः, क्षेत्रदेवताया इति । पाक्षिके शय्यासुरायाः भवनदेवताया इत्यर्थः, कुर्वन्ति, चातुर्मासिकेऽप्येके मुनयः इत्यर्थः ॥४२॥ ' पासोसिआई सव्वं, विसेससुत्ताओ एत्थ जाणिज्जा । पच्चूस-पडिक्कमणं, अहक्कम कित्तइस्सामि ।।४६३।। सामइयं कढ्ढित्ता, . चारित्तसुद्धत्त्थपढममेवेह । पणवीसुस्सासं चिअ, धीरा उ करिति उस्सग्गं ।।४६४।। उस्सारिऊण विहिणा, सुद्धचरित्ता थयं पकढ्ढित्ता। दंसणसुद्धि निमित्तं, करिति पणुवीस उस्सग्गं ।।४६५।। ऊसारिऊण विहिणा, कढिंढति सुअत्यवं तओ पच्छा । काउस्सग्गमणिययं, इहं करेंती उ उवउत्ता ॥४६६॥ पाउसिभ थुइमाई, अहिगय उस्सग्गचिट्ठपज्जते। चितिति तत्यसम्मं, अइयारे राइये सव्वे ॥४६७॥ तइए निसाइआरं, चिंतइ चरिमे अ किं तवं काहं । छम्मासा एकदिणाइ, हाणि जा पोरिसि नमो वा ॥४६६।। .
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