Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh
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४४[
प्रतिक्रमण विधि संग्रह
वंदित्त चेइ आइं, दाउ चउ राइए खमासमणे । भूनिहिअसिरो सयलाइ आर मिछ छुक्कउ हेइ॥११॥ जम्हा दंसणनाणा, संपुन्नफलं न दिति पत्तेअं। चारिनजुआ दिति अ विसिस्सए तेण चारित्तं ।।१२।। सामइअपुवपिछ छामि, ठाउ काउसग्गमिच्चाइ। सुत्तं भणिअ पलंबिप्रभुअकुप्पररिअ पहिरणो ।।१३॥ संजइ १ कविट्ठ २ घण ३ लय ४ लंबुत्तर ५:खलिण ६ मबरि ७ वहु ८ पेहा ६ वारुणि १० भमुहं ११ गुलि १२ सीस १३ पूअ १४ हय १५ काय १६ निअलु १७ द्धी १८ ।।१४।। थंभाइ १६ दोसरहिनं, तो कुणइ दुहुसिप्रो. तणुस्सग्गं । नाभिअहो जाणुढ्ढं चउरंगुलठविअडिपट्टी ॥१५।। काउस्सग्गंमि ठियो, निरेप्रकाओ निरुद्धवयपसरो। जाणइ सुहमेगमणो मुणि देवसि आइ अइआरं ॥१६॥ परिजाणिऊण य तो सम्म गुरुजरणपगासणेणं सो तो। सोहेइ अप्पंगं सो जम्हाय जिणेहिं सो भणियो ॥१७॥ काउस्सग्गं मुक्खपह-देसियं जाणिऊण तो धीरा। दिवसाइआर जाणण (ठया) ठाने ठंति उस्सग्गे ॥१८॥ सयणा सणन्न-पाणे चेइन-जइ-सिज्ज-काय-उच्चारे । समिई-भावण-गुत्ती, वितहायरणे अइारो ॥१९॥ गोसमुहणंतगाई, आलोए - देसिए अईमारे। सव्वे समाणइता, हिपए दोसे ठविज्जाहि ॥२०॥ काउ' हिनए दोसे, जहक्कम जा न ताव पारिति । ताव सुहमाण पाणु धम्म सुक्कं च झाइज्जा ॥२१॥
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