Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 11
________________ ४ ] प्रतिकमण विधि संग्रह के साधुओं का धर्म " सप्रतिक्रमण" कहा गया है। इससे भी इतना तो निश्चित है कि भगवान महावीर के श्रमण नित्य प्रतिक्रमण करते थै । इससे प्रमाणित होता है कि उस समय में भी आवश्यक सूत्र तो था ही, भले ही आधुनिक सूत्र की तरह स्वतंत्र न होकर द्वादश गणिपिटकान्तर्गत किसी अंग श्रुत में इसका समावेश किया हुआ हो यदि हमारे इस अनुमान के अनुसार श्रावश्यक श्रुत पूर्व काल में अंग-प्रविष्ट होगा तो निश्चित रूप से यह “गणधर कृत" कहला सकता है । परन्तु जैन सूत्र लिखे जाकर व्यवस्थित हुए उस समय में आवश्यक श्रुत अंग-प्रविष्ट नहीं था ऐसा श्री नन्दी सूत्र के निरूपण से सिद्ध होता है । नन्दी सूत्रकार भगवान श्री देवद्ध गणिक्षमा श्रमणजी ने आवश्यक त का अनंगप्रविष्ट के रूप में उल्लेख किया है, अनंग प्रविष्ट श्रुत के दो विभाग करते हुए क्षमा श्रमण जी एक विभाग में "आवश्यक" और दूसरे में "आवश्यक व्यतिरिक्त औपपातिकादि उपांगों" का निर्देश किया है, इससे यह बात सूचित होती है कि आवश्यक श्रुतपूर्वकाल में द्वादशांगी के हीं अन्तर्गत होगा पर कालान्तर में अन्य उपांगों की तरह आवश्यक सूत्र भी अंग सूत्र में से पृथक करके एक भिन्न श्रुत स्कंध के रूप में व्यवस्थित किया होगा । इसी से पिछले टीकाकारों ने इसकी श्रुत स्थविर कर्तृकता मानी होगी, इस अपेक्षा से आवश्यक सूत्र को गणधर रचित भी कह सकते हैं और श्रुत स्थविर कृत भी । नाम की सार्थकता -- इस सूत्र का "आवश्यक" यह नाम अन्वर्थक है, इस सम्बन्ध में नियुक्तिकार कहते हैं "समरण' सावएण य अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा । अन्तो अहो नि निसिस्स य । तम्हा आवस्सयं नाम ॥ १ ॥ "

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