Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 40
________________ प्रतिक्रमण विधि संग्रह • फिर भी शक्ति न हो तो ३२ भक्त, ३० भक्त यावत् चतुर्थ भक्त तक तपका चिन्तन करे। चतुर्थ भक्त तप करने की भी शक्यता न होने पर आयम्बिल, एकस्थानक, एकाशन, पुरिमार्ध, निर्विकृतिक, पौरुषी अथवा नमस्कार सहित जो भी तपस्या करने को समर्थ हो वह मन में निश्चित कर प्रत्याख्यान करे। फिर बैठकर वर्धमानस्तुतित्रय कहे। यहां विशेषता यह है कि स्तुति धीरे शब्द से बोले जिससे गृहकोकिलादिहिंसक प्राणी 'जग' न जायें। उसके बाद देववन्दन करे फिर बहुवेल सदिसाने के आदेश लें, उसके बाद मुहपत्ति प्रतिलेखन करके रजोहरण की प्रतिलेखना करे, फिर उपधि प्रतिलेखना का आदेश ले और प्रतिलेखना करे। बाद में वसतिका प्रमार्जन करे। फिर काल निवेदन करे। अन्य आचार्य कहते हैं-स्तुति पठन के अनन्तर ही काल निवेदन करना चाहिये। इस प्रकार प्रतिक्रमण प्रारम्भ करते समय काल की तुलना करे, जिससे प्रतिक्रमण के अन्त में स्तुति कहने के उपरान्त ही प्रतिलेखना का समय हो जाय । .(पाक्षिक सूत्र वृत्तितः पत्र ७६-७७) भावदेव सूरिकृत यति दिनचर्या की प्रतिक्रमण वधि-- "दिणसेसे कयथंडिल-पडिलेहो पडिक्कमेइ गोरियं । जं किं चि अणाउत्तं, समरिय कुणइ पच्छित्तं ।।३२।। तो पडिक्कमेई सूरे, अद्धनिबुड्ड जहा भणइ सुत्त । सम्मते पडिक्कमणे, ताराउ बि, तिन्नि, दोसति ।। ३।। चेइयवंदण भयवं-सूरि, उवज्झाय-मुणि-खमासमणा। सव्वस्सवि, सामाइय, देवसियअइयारउसग्गो ।।३४।। सयणा-सणन्न-पाणे, चेइय जइ सिज्ज काय उच्चारे। समिई-भावण गुत्ति, वितहायरणं मि अईयारे ।।३।।

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