Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 17
________________ १० ] प्रतिक्रमण विधि संग्रह "बृहद्गच्छ" और उस पर से निष्पन्न हुए “तपागच्छ” भिन्न पड़ रहे थे। दूसरे सबों का आधार “आवश्यक चूर्णि" था, तब "बृहद् गच्छ” के श्रमण समुदाय “महा निशीथ" के "ईविही" प्रतिक्रमण सम्बन्धी एक सामान्य विधान को महत्व देकर सामायिक दंडक उच्चारण के पूर्व "ईर्या पथिकी" प्रतिक्रमण के पक्ष में हुए। उन सब गच्छों में से जो जो गच्छ आज विद्यमान हैं वे सर्व अपने २ पूर्वाचार्यों की "ईर्या पथिकी" प्रतिक्रमण सम्बन्धी परम्परा का ही अनुसरण करते हैं। सूत्रोक्त साधुसामाचारी सामाचारी मूलसूत्र के अनुसार कहूंगा जो सर्वदुःखों से मुक्त. करने वाला है और जिसका आचरण करके निग्रंथ संसार समुद्र को तिरे हैं। प्रथमा-आवश्यकी, दूसरी नैषेधिकी, तीसरी आपृच्छना, चौथी प्रतिपृच्छना, पंचमी छंदना, छठ्ठी इच्छाकार, सातवीं मिथ्याकार, अष्टमी तथाकार, नवमी अभ्युत्थान और दशवी उपसम्पदा यह साधुओं की दशांग सामाचारी कही हैं। . दशविध सामाचारी के स्थान गमन में आवश्यकी करें, अपने निवास स्थान में प्रवेश करते समय नैषेधिकी करें, अपना कार्य करने के समय आपृच्छा करे, दूसरे का कार्य करते समय प्रतिपृच्छा करे, प्राप्तद्रव्य जात से छन्दना करे, कार्य प्रवृत्ति कराते समय इच्छाकार करे, अपनी भूल की निन्दा में मिथ्याकार करे, गुरु या वडील के वचन के स्वीकार में 'तथाकार' करे, गुरु के अपने निकट आने पर 'अभ्युत्थान' करें और उनकी

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