Book Title: Pratikraman Vidhi Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Mandavala Jain Sangh

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Page 23
________________ १६] प्रतिक्रमण विधि संग्रह जाहे गुरु ठंति सेण श्रागतं तं का तु आवस्सगं प्रणेते तिणि ब्युतिओं करेंति अथवा एगा एगसिलोइगा, बितिया बिसिलोइया, तइया तिसिलोइया, तेसि समत्ती ए काल वेला पड़िलेहण विधो इमा कातव्वा । " (आवश्यक चूर्णि उत्तर भा० प्र० २२९-३०) निर्व्याघात प्रतिक्रमण में मंडली में जाते ही सर्व प्रथमं सामायिक. सूत्र बोलते हैं । सामायिक सूत्र बोलकर अथं चिन्तन करते हैं । जब आचार्य वोसिरामि' यह कहें तब शेष साधु भी अतिचार चिन्तनादि पूर्वक मुखवस्त्रिका प्रतिलेखनादि करते हैं । कोई आचार्य कहते हैं- जब आचार्य सामायिक सूत्र पढ़ते हैं तब वे वैसे हो मन में चिन्तन करते हैं । प्रथम सूत्र का चिन्तन कर मुहपत्ति प्रति लेखनादि करते हैं, वंसा करके जब तक आचार्य कायोत्सर्ग में स्थित हों तब तक अन्य श्रमण मन में अनुप्रेक्षा करते हैं, सर्व दिवस सम्बन्धी अतिचारों का चिन्तन करके जितने दैवसिक प्रतिचार हों उन सब को मन में याद करके कायोत्सर्ग पारने के वाद उन दोषों को , आलोचना से अनुलोम और प्रतिसेवना से अनुलोम हृदय में स्थापन करें । उन सब की समाप्ति के बाद जब तक आचार्य कायोत्सर्ग नहीं पारते अन्य साधु अपने मन में धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान का चिंतन करें, आचार्य अपनी दिन भर की प्रवृत्तियों तथा चेष्टाओं को दो बार चिन्तन करें, इतने समय में अतिप्रवृत्ति वाले साधु अपनी चेष्टानों के सम्बन्ध में एक बार चिंतन कर सकते हैं। इस प्रकार देवसिक प्रतिक्रमण समझना चाहिये । रात्रिक प्रतिक्रमण में रात्रिक अतिचार होते हैं। पाक्षिक से दिवस चातुर्मासिक, सांवत्सरिक अतिचार नहीं होते इस कारण

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