Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रस्तावना
की आलंबन परीक्षा और त्रिकाल परीक्षा, धर्मकीति की सम्बन्ध परीक्षा, धर्मोत्तर की प्रमाण परीक्षा व लघुप्रमाण परीक्षा तथा कल्याणरक्षित की श्रुतिपरीक्षा जैसे परीक्षान्त ग्रन्थों को याद दिलाते हैं। विद्यानन्द को परीक्षान्त नाम रखने में इनसे प्रेरणा मिलो हो, इसमें आश्चर्य नहीं । पहले शास्त्रार्थों में जो पत्र दिए जाते थे, उनमें क्रियापद गढ़ रहते थे, जिनका आशय समझना कठिन होता था। उसी के विवेचन के लिए विद्यानन्द ने पत्रपरीक्षा नामक एक छोटे से प्रकरण की रचना की थी। जैन परम्परा में इस विषय की सम्भवतया यह प्रथम और अन्तिम रचना है । श्रोपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र की रचना अतिशय क्षेत्र श्रीपुर के पार्श्वनाथ के प्रतिबिम्ब को लक्ष्य में रखकर की गई है।
अष्टसहस्री की अन्तिम प्रशस्ति में बताया है कि कुमारसेन की युक्तियों के वर्द्धनार्थ यह रचना लिखी जा रही है। इससे ध्वनित होता है कि कुमारसेन ने आप्तमीमांसा पर कोई विवृति या विवरण लिखा होगा, जिसका स्पष्टीकरण विद्यानन्द ने किया है। निश्चयतः कुमारसेन इनके पूर्ववर्ती हैं। कुमारसेन का समय ई० सन् ७८३ के पूर्व माना गया है । अनन्तकीर्ति
आचार्य अनन्तकीर्ति रचित लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत् सर्वज्ञ सिद्धि नाम के दो प्रकरण लघीयस्त्रयादि संग्रह में छपे हैं। उनके अध्ययन से प्रकट होता है कि वे एक प्रख्यात दार्शनिक थे । उन्होंने इन प्रकरणों में वेदों के अपौरुषेयत्व का खण्डन करके आगम को प्रमाणता में सर्वज्ञ प्रणीतता को ही कारण सिद्ध किया है। इन्होंने सर्वज्ञता के पूर्व पक्ष में जो पद्य उद्धृत किए हैं, उनमें कुछ मीमांसा श्लोकवार्तिक के, कुछ प्रमाणवार्तिक के और कुल तत्त्व संग्रह के हैं। प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड के सर्वज्ञ साधक प्रकरणों में अनन्तकीर्ति की वृहत्सर्वज्ञसि द्धि का शब्दपरक अनुसरण किया है।
१. प्रमाण परीक्षा डॉ० दरबारीलाल कोठिया द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ० १ ।. २. जैन न्याय, पृ० ३७ । ३. वीरसेनाख्य मोक्षे चारुगुणाऽनय॑रत्नसिन्धुगिरि संततम् ।
सारतरात्मध्याने भारमदाम्भोदपवनगिरि गह्वरायितु । कष्ट सहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् ।
शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्ति वर्द्धमानार्था । ४. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री : भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा,,
पृ० ३५१ ( भाग-२)। ५. जैन न्याय, पृ० ३८ ।
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