Book Title: Prachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Rajendrasuri Jain Granthmala

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Page 15
________________ भूमि 'माल' कह कर व्यक्त किया है। प्राचीन समय में चम्बल प्रवाहित प्रदेश को अर्थात पश्चिम मालवा को 'अवन्ती और बेतवा प्रवाहित पूर्व भाग को 'आकार और इसी प्रकार नर्मदा तीरस्य दक्षिण भाग को अनूप कहा जाता था। उज्जैनअवन्ती की ओर विदिशा 'आकार' की राजधानी थी। मेघदूत में 'आकार' का नाम 'दशार्ण' लिखा है और उसकी राजधानी दशपुर बतायी गयी है। कालिदास लिखते हैं कि दशार्ण तथा अवन्ती के बीच निर्विन्ध्या नामक नदी बहती थी। कालिदास के अनन्तर प्रायः हजार वर्ष बाद मालवा प्रधानतः ग्वालियर, होल्कर, रतलाम, भोपाल और धार राज्य में विभाजित हो गया था। इस प्रकार हम मोटे रूप में वर्तमान मध्यप्रदेश में मालवा क्षेत्रांतर्गत निम्नांकित जिले तथा उनके लगे हुए भूखण्ड को सम्मिलित कर सकते हैं: उज्जैन, इन्दौर, देवास, धार, झाबुआ, रतलाम, मन्दसौर, शाजापुर, राजगढ़ (ब्यावरा), सीहोर, विदिशा तथा गुना। फिर भी किसी प्रदेश को निश्चित सीमा में नहीं बांधा जा सकता। जो भी सीमा हम निर्धारित करते हैं, वह अध्ययन की सविधा के दृष्टिकोण से करते हैं। अतः मालवा की सीमा भी केवल अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से भी निर्धारित की गई है। शोध-प्रबन्ध का उद्देश्य - निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि मालवा में जैनधर्म का उदय कब हुआ, तथा विभिन्न युगों में मालवा में जैनधर्म की स्थिति कैसी रही? जैनधर्म के विविध अंगों का स्वरूप कैसा रहा? यद्यपि इस विषय पर स्फुट जानकारी यत्र-तत्र बिखरी पड़ी थी, एक स्थान पर विस्तृत रूप से उसका अध्ययन अब तक नहीं हुआ था। जैनधर्म के पुरातात्विक अवशेषों का भी कला के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान है। उनका भी समुचित अध्ययन आवश्यक होगा। अतः इस शोध प्रबन्ध का प्रमुख उद्देश्य है मालवा में जैनधर्म और उसके विभिन्न अंगों का अध्ययन प्रस्तुत कर एक नये अध्याय का प्रारम्भ करना। जैनधर्म के इस अध्ययन से मालवा के इतिहास पर नवीन प्रकाश पड़ता है। कला एवं साहित्यिक क्षेत्र में अमूल्य निधि प्राप्त होती है। शोध-प्रबन्ध की विषय वस्तु- शो-प्रबन्ध की विषय-वस्तु संक्षेप में इस प्रकार है: (1) जैनधर्म का ऐतिहासिक महत्त्व - इस अध्याय में जैनधर्म के प्रादुर्भाव से प्रारम्भ कर प्रसार को बताते हुए विभिन्न ऐतिहासिक युगों में प्रद्योत काल से लेकर राजपूत काल तक उसके अस्तित्व स्थिति तथा विकास पर प्रकाश डाला गया है। (2) जैनधर्म के भेद व उपभेद - यह अतिविस्तृत विषय है। इसमें सर्वप्रथम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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