Book Title: Paumchariu me Prayukta Krudant Sankalan
Author(s): Kamalchand Sogani, Seema Dhingara
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 28
________________ 142. परिअत्तेवि 143. परिचिंतेवि 144. परिणेप्पिणु 145. परिभमेवि 146. परिमण्णेवि 147. परियाणेवि 148. परियच्छेवि 149. परियप्पेवि 150. परिसेसवि 151. परिहेवि 152. परिहरेवि 153. पलोएवि 154. पव्वज्जेवि 155. पवोलेवि 156. पसरेप्पिणु 157. पसाहेवि 158. पहरेवि 159. पाले वि 160. पावेवि 161. पिएवि 162. पुज्जेवि 163. पूरिउ 164. पेक्खे वि 165. पेल्लेवि पउमचरिउ परिअत्त + एवि परिचिंत + एवि परिण + एप्पिणु परिभम + एवि परिमण्ण + एवि परियाण + एवि परियच्छ + एवि परियप्प + एवि परिसेस + अवि परिह + एवि परिहर + एवि पलोअ + एवि पव्वज्ज + एवि पवोल + एवि पसर + एप्पिणु पसाह + एवि पहर + एवि पाल. + एवि पाव + एवि पिअ + एवि पुज्ज + एवि Jain Education International पूर + इउ पेक्ख + एवि पेल्ल + एवि प्रयुक्त कृदन्त-संकलन ] लौटकर चिन्तन करके विवाह करके परिभ्रमण करके मानकर पहचानकर समझकर कल्पना करके त्यागकर पहनकर छोड़कर देखकर प्रव्रज्या लेकर अतिक्रमण करके फैलाकर सजाकर प्रहार करके पालन करके प्राप्त करके पीकर आदर करके बजाकर देखकर दबाकर For Personal & Private Use Only 18/11/8 4/12/5 10/7/1 33/10/1 23/2/3 38/9/1 58/14/3 9/4/2 3/10/8 76/5/8 4/3/8 84/8/8 17/18/घ. 23/9/9 23/5/11 2/16/2 57/5/3 84/23/6 90/9/8 5/4/5 4/3/5 17/10/5 3/5/घ. 17/5/1 [21 www.jainelibrary.org

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