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कुल गा और शाखाएं
कल्प-स्थविरावली में कुल, गण और शाखाएं निकलने का वर्णन प्राया करता है, परन्तु इन नामों का पारिभाषिक अर्थ क्या है और इन नामों के प्रचलित होने के कारण क्या होंगे, इन बातों को समझने वाले पाठक बहुत कम होंगे। भगवान् महावीर के समय में भी नव गण थे, परन्तु उन गणों के साथ कुल तथा शाखाओं की चर्चा नहीं थी। भगवान् महावीर का निर्वाण होने के बाद भी लगभग २०० वर्षों तक सैकड़ों की संख्या में जैन श्रमण विचरते थे और उनका अनुशासन करने वाले प्राचार्य भी थे तथापि उस समय कुल, गण आदि की चर्चा क्यों नहीं, यह शंका होना विचारवान् के लिए स्वाभाविक है । इसलिए स्थविरावली का प्रारंभ करने के पहले ही हम इन सब बातों का स्पष्टीकरण करना आवश्यक समझते हैं।
___ भगवान महावीर के समय में 'गण' थे, इसीलिए उनके व्यवस्थापक मुख्य शिष्य "गणधर" कहलाते थे। “गण का अर्थ यहां एक साथ बैठकर अध्ययन करने वाले श्रमरणों का समुदाय" होता है। महावीर के गणघर ११ थे परन्तु गण ६ ही माने गये हैं, क्योंकि अन्तिम चार गणघरों के पास श्रमणसमुदाय कम होने के कारण दो दो "गणधरों" के छात्र-समुदायों को सम्मिलित करके शास्त्राध्ययन कराया जाता था । मतः गणधर दो दो होने पर भी उनका समुदाय एक एक ही माना जाता था।
अब रही "कुलों" की बात; सो तीर्थंकरों के गणधरों में से एक एक के पास जितने भी श्रमण होते थे वे सब गणधर के शिष्य माने जाते थे। इस लिए गणधरों के समय में कुल नहीं थे। भगवान महावीर के जितने भी गणधर थे वे सब अपने शिष्यों को निर्वाण के समय में दीर्घजीवी गणधर
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