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रंगमंच, तुम्ही हो अभिनेता और तुम्ही हो कथा लेखक, तुम्ही हो निर्देशक, तुम्ही हो निर्माता और तुम्ही होते हो दर्शक-दूसरा कोई नहीं है वहां, बस मन का सृजन है। जब तुम इस बात के प्रति जागरूक हो जाते हो, तब तुम जाग रहे होते हो, तब यह सारा संसार अपनी गुणवत्ता बदल देगा। तब तुम देखोगे कि यहां भी वही अवस्था है, लेकिन ज्यादा लंबे-चौड़े रंगमंच पर। सपना वही है।
हिंदू इस संसार को कहते हैं माया, भ्रम, स्वप्न-सदृश, मन की चीजों का धोखा। क्या मतलब होता है उनका? क्या वे यह अर्थ करते हैं कि यह अवास्तविक है? नहीं, यह अवास्तविक नहीं है। लेकिन जब तुम्हारा मन इसमें घुल-मिल जाता है तो तुम अपना एक अवास्तविक संसार बना लेते हो। हम एक तरह के संसार में नहीं जीते; हर कोई अपने ही संसार में जीता है। उतने ही संसार हैं जितने कि मन हैं। जब हिंदू कहते हैं कि यह संसार माया है, तो उनका अर्थ होता है कि वास्तविकता और मन का जोड है माया। वास्तविकता, जो कि है, हम जानते नहीं हैं। वास्तविकता और मन का जोड़ है भ्रम, माया। जब कोई समग्र रूप से जाग जाता है, एक बुद्ध हो जाता है, तब वह जानता है मन से मुक्त हो गयी वास्तविकता को। तब यह होता है सत्य, ब्रह्म, परम।
वास्तविकता और मन का जोड़, और हर चीज सपना हो जाती है, क्योंकि मन है वह कच्चा माल जो निर्मित करता है सपनों को। मन से न जुड़ी हुई वास्तविकता-और कोई चीज सपना नहीं हो सकती, केवल वास्तविकता बनी रहती है। अपनी पारदर्शक शुद्धता में।
मन तो दर्पण की भांति होता है। दर्पण में संसार प्रतिबिंबित होता है। वह छाया वास्तविक नहीं हो सकती; वह छाया तो बस छाया ही रहती है। जब कोई दर्पण नहीं रहता, छाया तिरोहित हो जाती है। अब तुम देख सकते हो वास्तविक को।।
पूर्णिमा की रात, झील शात होती है। चांद प्रतिबिंबित होता है झील में और तुम कोशिश करते हो चांद को पकड़ने की। यही सब है जो हर कोई कर रहा है बहुत जन्मों से, कोशिश कर रहा है झील के दर्पण में झलकते चांद को पकड़ने की। और निस्संदेह तुम कभी सफल नहीं हुए। तुम सफल हो नहीं सकते, ऐसा संभव नहीं। व्यक्ति को भूलना ही होता है झील को और देखना होता है ठीक विपरीत दिशा में। वहां है चांद।
मन है झील जिसमें संसार बन जाता है मायामय, अवास्तविक। तुम बंद आंखों से देखते हो सपना या कि खुली आंखों से इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। यदि मन है वहां, तो सब जो घटता है वह सपना है। यह होगा पहला बोध यदि तुम ध्यान करो स्वप्नों पर।
और दूसरा बोध होगा कि तुम साक्षी हो : सपना मौजूद है, पर तुम उसके हिस्से नहीं। तुम हिस्से नहीं अपने मन के, तुम हो एक अतिक्रमण। तुम हो मन में, पर तुम नहीं हो मन। तुम देखते हो मन के
द्वारा, पर तुम नहीं हो मन। तुम प्रयोग करते हो मन का, पर तुम नहीं हो मन। अकस्मात तुम होते हो साक्षी-मन नहीं रहते। और यह साक्षी अंतिम होता है, परम बोध। फिर चाहे तुम सपना देखो