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ग्रन्थका-विषयक संस्मरण
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अति प्राचीन काल से चले आ रहे पारस्परिक सम्बन्धों की मान्यताएं सम्यक् प्रतिष्ठापित हो चुकी हैं।
योरप और राजपूताना की सामन्त-प्रणाली की एकरूपता का सिद्धान्त तो शाब्दिक समानता की अपेक्षा सुदृढ तथ्यों पर अधिक आधारित है । परन्तु, जैसा कि 'इतिहास' की एक समीक्षा' में कहा गया है, 'सनिक आधार पर भूमि का अधिकार-भोग प्रदान करने से, जो जन-सुरक्षा के हित में एक सरल और स्पष्ट आवश्यकता है, सभी जगह न्यूनाधिक रूप में समान सम्भावनाओं का ही जन्म होता है।' पूर्वीय देशों की सामन्त-प्रणाली-विषयक विचार कर्नल टॉड से पूर्व के विद्वान लेखकों के ध्यान में आ चुका था परन्तु उन विचारों को प्रत्यक्ष प्रमाणों के द्वारा सुदृढ़ता प्रदान करने का श्रेय उसी को प्राप्त है । अस्तु, इन दोनों प्रणालियों में दो महत्वपूर्ण भेद हैं। पूर्व में विशेषतः राजस्थान में, भूमि और उसकी मिट्टी पर उपज के आधार पर राजस्व के अतिरिक्त, राजा का कोई अधिकार नहीं है । हमारी सामन्त-प्रणाली में, मुख्य सिद्धान्त यह है कि राजा ही राज्य का सार्वभौम स्वामी और मूल स्वत्वाधिकारी होता था और समस्त अधिकार उसी में निहित होते थे तथा उसी से प्राप्त किए जा सकते थे। फिर, हमारी सामन्तप्रणाली में कृषक अथवा दास कोई सम्पत्ति प्राप्त नहीं कर सकता था और यदि वह कोई भूमि खरीद भी लेता था तो वह स्वामी उसमें घुस कर स्वेच्छा से उसका उपयोग कर सकता था, जब कि राजस्थान में 'रयत' अथवा किसान हो भूमि का असली मालिक होता है ।
१६ नवम्बर, १८२६ ई० को कर्नल टॉड ने. लन्दन के सुप्रसिद्ध भिषक् डॉक्टर क्लटरबक (Dr. Clutterbuck) की पुत्री से विवाह किया। उसके स्वयं
' एडिनबर्ग रिव्यू, अक्टूबर १८३० । • रिचार्डसन ने अपने 'अरबी फारसी कोश (Persian and Arabic Dictionary) को विद्वत्तापूर्ण भूमिका में सामन्त-प्रणाली का उद्गम विशुद्ध रीति से पूर्वीय देशों में हुमा माना है। वह कहता है कि फारस, तातार, भारत और अन्य पूर्वीय देशों में अत्यन्त प्राचीन काल से लेकर वर्तमान क्षण तक और किसी प्रकार की शासनप्रणाली का विवरण ही नहीं दिया जा सकता। हमारी सामन्त-प्रणाली के उद्गम और उत्थान में विशेषता है। यह एक विदेशी पौधे के समान है जिसके परिणामस्वरूप हमारे योग्य से योग्यतम पुरातत्वानुसन्धानकर्ता का ध्यान इसकी पोर प्राकर्षित हुआ है। जब कि पूर्व में यह प्रथा स्वदेशी, सार्वदेशिक और चिरकालागत रही है इसलिए किसी भी पूर्वीय इतिहासज्ञ ने राजप्रणाली के अतिरिक्त उसके उद्गम का तलाश करने का स्वप्न में भी विचार नहीं किया है।
पृ० ६२-६३
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