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[ १२५ का (गाधानगर) पि con ढकने वाली बर्फ के आधार पर हम इसका हिसाब लगा सकते हैं; ऐसा दृश्य हिन्दुस्तान में हिमालय के दक्षिण में कभी देखने को नहीं मिलता है ।
अब, पाबू' की यात्रा समाप्त हुई, मुझे सन्तोष है; परन्तु अभी चन्द्रावती बाकी है। मुझे भय है कि उसे छोड़ ही देनी पड़ेगी और अपने आप को इसी का अन्वेषक मान कर सन्तोष कर लेना पड़ेगा। आबू ने मेरा कचूमर निकाल दिया; बुखार बढ़ रहा है, चेहरे और हाथों पर खूब सूजन आ गई है, जो सूर्य को सोधी किरणों के कारण बढ़ भी गई है । सूर्य की तेजी का प्रभाव उस समय के वातावरण में और भी अधिक मालूम होता है जब वह अपनी किरणें समेट लेता है। इस मायामय पर्वत की यात्रा करते समय किसी भी योरप-निवासी यात्री को अपनी शक्ति के विषय में भ्रम हो सकता है क्योंकि ठण्डी और उत्साहप्रद हवा उसे परिश्रम के लिए प्रेरित करती है और वही उसे नुकसान भी पहुँचाती है । फिर, मैं यह भी कहूँगा कि जिनके पास इस यात्रा में बिताने के लिए मुझसे अधिक समय नहीं है उन्हें यह प्रयास करना भी नहीं चाहिए क्योंकि यहां के बहुमूल्य और विचित्र भण्डारों को देखने के लिए ही कम से कम एक महीना चाहिए । सविवरण मानचित्र, विभिन्न दृश्यों की चित्रावली, रेखाचित्र, पहाड़ियों और यहां के मन्दिरों के चित्रों के साथ-साथ, यदि सम्भव हो तो, उनका कुछ वर्णन भी, तथा यहां के शासकों का कुछ हाल, यहां की पुराण-परम्परा, विविध मान्यताएं और पशु-पक्षियों, खनिज पदार्थों एवं वनस्पति-विज्ञानको सामग्री भी साथ हो तो यह सब मिलकर यहां का विवरण एक असाधारण मनोरंजन की वस्तु होगी ।
यह महान् कार्य हम किसी भावी प्रकृति-पुजारी कलाप्रेमी यात्री के लिए छोड़ रहे हैं और उसे इन प्रान्तों में खूब प्रसार करने वाले कवि के शब्दों में यही सूचित करते हैं कि
' मैं प्राबू-माहात्म्य नामक पुस्तक खरीद लाया हूँ (प्रत्येक तीर्थ-स्थान सम्बन्धी पुस्तक को
माहात्म्य कहते हैं) जिसमें यहां के सभी धर्मिक कार्यों का विवरण है और बीच-बीच में उन राजानों का भी उल्लेख है, जिन्होंने इन मन्दिरों को समृद्ध किया है अथवा इनका जीर्णोद्धार कराया है। साथ ही, उन प्राठ हजार प्रकार के पौधों का वर्णन है जो यहां के धरातल पर पाए जाते है। यह ग्रन्थ बहुत ही सुन्दर और सुलिखित है तथा जहाँ तक मुझे याद है, प्राकृत में है। प्रत्योक पंक्ति के नीचे संस्कृत व्याख्या या रूपान्तर भी किया गया है। परन्तु जब मेरे गुरु यतिजी मेरे साथ थे उस समय मुझे इसको पढ़ने का अवसर नहीं मिला । यह प्रति रायल एशियाटिक सोसायटी के संग्रहालय में सुरक्षित है ।
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